अद्वितीय जीवन की नींव-समझ, स्वीकार और संस्कार

 

अद्वितीय जीवन जीना हर कोई चाहता है। जहां पर सुख हो, समृद्धि हो, वैभव हो, शांति हो और समरसता हो। लेकिन आज के जमाने में प्रश्न यह है कि अद्वितीय जीवन जीने के लिए क्या कोई अपनी जिम्मेदारी को निभाता है?— नहीं! मनुष्य रोते हुए जन्म लेता है, फरियाद करते हुए जिन्दगी जीता है और असंतोष के साथ मरता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य को अपने जीवन का कोई स्वाद ही नहीं है। क्या पैसा होने से सुखी हो सकते हैं?— क्या पद-प्रतिष्ठा मिलने से सुखी हो सकते हैं?— क्या शक्ति पाने से सुखी हो सकते हैं?— यह सब सवाल आज हर मनुष्य के सामने है, और उनका उत्तर है, नहीं।

इतिहास के पन्नों में दर्ज नेपोलियन-द ग्रेट एक ऐसा नाम है जिसने विश्व के आधे से ज्यादा राजाओं और सत्ताओं को हरा दिया था, उनका नाम सुनते ही लोग कांपने लगते थे। लेकिन अपने अंतिम समय में नेपोलियन ने खुद तीन वाक्य लिखे थे। उन्होंने कहा कि, पृथ्वी के भीतर और सूर्य के नीचे जितने भी सुख है, वो मैं पा सकता हूँ, विश्व की कोई भी सत्ता और कोई भी राजा को मैं हरा सकता हूँ इतना बलवान हूँ, लेकिन मैंने अपने जीवन में छह सुखी दिनों को देखा नहीं है। नेपोलियन के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि, जीवन का सुख शक्ति, समृद्धि, सत्ता में नहीं है। जीवन का मूलभूत सुख, समझ, स्वीकार और संस्कार में है । हमें जीवन जीते जीते अपनी समझ को मजबूत, सुदृढ़ और दोष रहित बनाना है और समाज में यह बदलाव लाना है कि, आगे बढ़ने के लिए एक जरूरी एकेडेमिक करियर, कुटुंब का सम्पूर्ण साथ, सही मनुष्य जीवन की भावना  और प्रभु पर समर्पित जीवन चाहिए। समझ का सीधा संबंध हमारे दिमाग के साथ है, हम जितना और जैसे सोचते हैं, उतना और ऐसे ही कार्य होता है। मनुष्य 24 घंटे में से 8 घंटे सोता है, 8 घंटे काम करता है और रोजी-रोटी की चिंता करता है, शेष 8 घंटे में क्या करता है, उस पर जीवन के सुख की निर्भरता है।

हमारा धर्म और अध्यात्म यह कहता है कि, मनुष्य को तीसरे 8 घंटे में अपना समय अपने कुटुंब, मित्रें और विश्वास संपादन में, अपने आरोग्य, स्वच्छता और अपनी हॉबी के लिए, और अपनी आत्मा, सेवा और खुशी (खुद की और दूसरों की) के लिए बिताना चाहिए। अपने समझ को दोषमुक्त बनाना चाहिए, जिसमें समाज का कोई कूड़ा-कर्कट न भरा हो। इतना ही नहीं, हमें अपने समझ को उत्तम  बनाना है। एक उत्तम समझ ही हमारी योग्यता प्रामाणित करता है। इस सम्बन्ध में एक छोटी सी कहानी भी है -‘एक बार एक राज्य में अमात्य (प्रधान) की जगह खाली हुई, तो राजा ने पूरे राज्य में बोल दिया कि, राज्य के जो भी युवा, यह जगह हासिल करने की उम्मीद रखता हो, वह सब साक्षात्कार के लिए रविवार को आ जाए। बहुत सारे युवा आ गए, सब को राजा के अमात्य बनने की ख्वाहिश थी। राजा ने सब युवाओं को एक कमरे में बैठाया और सब को एक गणितीय उदाहरण  दिया और बोला कि, जो भी युवा इस उदाहरण को हल करेगा, उसके लिए सामने वाला दरवाजा अपने आप खुल जायेगा और वो सीधा भीतर मेरे पास आएगा एवं अमात्य बनेगा। सब लोग उदाहरण को हल करने के लिए लग गए लेकिन उसमें एक ऐसी गलती रखी गई थी कि, वो हल ही न हो पाए। सभी युवा तो लगे रहे, पर एक युवक ने उठकर दरवाजा धक्का लगाकर खोल दिया और राजा को बोला कि आपका दिया हुआ उदहारण गलत है, और दूसरा कि उदाहरण का दरवाजे के साथ क्या सम्बन्ध?— दरवाजा खोलने के लिए उसको धक्का लगाना जरूरी ही है। राजा खुश हो गया और बोला की मुझे ऐसा ही अमात्य चाहिए था जो सिर्फ मेरे बोलने पर विश्वास नहीं रखते हुए, अपनी समाज को सुद्रढ़ता से चलाए, और वो मुझे मिल गया।

‘तातपर्य यह है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए, समाज का स्थिर और सुदृढ़ होना जरूरी है। समाज में तीन चीज जरूरी है— सोचना, बोलना और करना। अद्वितीय जीवन की दूसरी बात है, स्वीकार। स्वीकार में भी समाज तो चाहिए ही। हमें हमेशा लगता है कि भगवान ने मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया— क्याेंकि हम हमेशा दूसरों की ओर देखकर ही चलते हैं, और इसलिए हमको कभी भी अपनी चीजों में संतोष नहीं होता। अगर जीवन को सुदृढ़ और सरल बनाना है, तो हमें हर चीज को स्वीकार करना होगा कि भगवान् ने मुझे वही दिया जो मेरे कर्म के अनुसार मुझे मिलना चाहिए था। क्या हमें अपने लिए माँ-बाप चुनने की इजाजत है?—- अपने बच्चे चुनने की इजाजत है?—- वैसे तो हम शादी करने के लिए 10-12 लड़की देखते है और हमें लगता है कि, मैंने लड़की चुन ली, पर मिलती वहीं है जो हमारे भाग्य में लिखी हुई है। जैसे इन सब चीजों को हम अपने जीवन में स्वीकार कर लेते है, वैसे ही भौतिक और सामाजिक चीजों को भी स्वीकार करना है।

हमारे जीवन में हर चीज हमें अपने कर्माे के अनुसार ही प्राप्त होती है। ज्यादातर लोग भाग्य (नसीब) को श्रेष्ठ समझते है और राह देखकर बैठते है कि मेरा भाग्य कब बदलेगा?— भगवद गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि, मनुष्य को जीवन में सफल होने के लिए, पहले कर्ता, बाद में कारण, फिर पृथक्चेष्टा, बाद में अधिष्ठान और अंत में दैव। मतलब की पहले की चार बातों में अगर सफल हुए तो ही दैव (भाग्य) प्राप्त होता है। हमेशा यह समझ रखनी है और यह स्वीकार करना है कि भगवान हमारे लिए जो कुछ भी करता है, वो सही होता है। कई बार हमें पहले अच्छा नहीं लगता, लेकिन बाद में पता चलता है कि, यह सही था जैसे कि ऑफिस जाने में देरी हो गई और बस चली गई, घर वापिस आकर बीवी पर गुस्सा भी कर लिया, पर एक घंटे बाद समाचार मिला की उस बस का एक्सीडेंट हो गया और 50 लोग मर गए, तब हमें एहसास होता है कि भगवान ने मेरे लिए क्या किया है। हर मनुष्य के जीवन में ऐसे उदाहरण होते ही हैं, पर देखने का नजरिया वो नहीं होता कि भगवान ने मेरे लिए कुछ अच्छा किया है। इसलिए मिले वो माँ-बाप,  वो बीवी, वो बच्चे, वो सम्पति, वो जीवन— यह स्वीकार करके ही चलना समझदारी है, और यह स्वीकार करने से हम कभी भी दुखी नहीं होते।

हमने संत तुकाराम का नाम तो सुना ही है। वो अपने गाँव में भगवान का भजन-कीर्तन करते थे और लोगों से संस्कार की बातें करते थे, तो गाँव के लोगों ने उनका जुआ-दारू का काम बंद होने की डर से उसका सर मुंडवाकर, गले में बैंगन की माला पहनाकर गाँव में घुमाया। उनकी पत्नी को तो बहुत बुरा लगा, रोने लगी पर तुकाराम महाराज ने बोला कि, भगवान की कितनी कृपा है, हमारे पर!— सर से बाल कटवाने का पैसा नहीं था, तो वो काम गाँव वालाें ने कर दिया, महीनों से सब्जी नहीं खाई थी, तो आज यह बैंगन की माला में अनगिनत बैंगन आ गए, दो-चार दिनों तक सब्जी बनाकर खाएंगे!— यह होता है, जीवन और जीवन की बातों को देखने का नजरिया, यह है स्वीकार। अद्वितीय जीवन की तीसरी और महत्व की बात है, संस्कार। संस्कार का मनुष्य जीवन में बहुत ज्यादा महत्व है। दो वक्त का खाना अगर नहीं मिले तो चलेगा लेकिन दो संस्कार कम हुए तो नहीं चलेगा। वैसे तो भारतीय संस्कृति के अनुसार 16 संस्कार का वर्णन किया गया है, पर यहाँ हम वो 16 संस्कार की बात नहीं करेंगे। यहाँ बात करेंगे मूलभूत संस्कारों के बारे में।

आज हर माता-पिता यह चाहते हैं कि, मेरा बच्चा मुझे नमस्कार करे,अभिवादन करे लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि, क्या हम अपने माँ-बाप को नमस्कार करते हैं?— अगर हम नहीं करते तो हमारी संतान कभी नहीं करेगी। संस्कार दो प्रकार के होते हैं, एक अर्जित और एक उपार्जित। मतलब की अर्जित संस्कार जन्म के साथ, अपने कर्म के अनुसार ही आ जाते है, और उपार्जित संस्कार हमें समाज से, माँ-बाप से, गुरु से ग्रहण करने पड़ते हैं। समाज का हर व्यक्ति जब दोनों प्रकार के संस्कार से भर जाए, तब राम राज्य आता है। क्या हमने कभी सोचा है कि उस जमाने में राम का यह राज्य, राम-राज्य से क्यों प्रचलित था?—- आज के जमाने में भी कहीं पर अच्छा होता है, तब हम कहते है कि राम-राज्य है! ऐसा क्यों?—–यह इसलिए है क्याेंकि उस जमाने में राम के राज्य में लोग संस्कारी, प्रामाणित, सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। आज हम सब भी ऐसा राज्य चाहते है, पर हो नहीं सकता, क्योंकि प्रामाणिकता लोगों के जीवन से चली गई है। सत्य और अहिंसा का कोई मूल्य नहीं है, संस्कार को कोई उपार्जित करके अपने जीवन में लेना नहीं चाहता।

एक बार अयोध्या में एक ब्राह्मण सुबह में सरयू नदी में स्नान करने गया। अगले दिन रात को बहुत बारिश आई थी तो नदी में बहाव कीचड़ था, जो इतनी सुबह में दिखाई नहीं दे रहा था। जब ब्राह्मण वहां पर जा रहा था तब, कीचड़ में एक गाय खूप गई थी, जो ब्राह्मण को दिखाई नहीं दी, और ब्राह्मण का पैर उस गाय पर पड़ गया। तब गाय ने उस ब्राह्मण को शाप दे दिया कि, स्नान करके बाहर निकलेगा तो तेरा मुंह गाय का हो जायेगा। ब्राह्मण के लिए मुश्किल घड़ी आ गई ,उसने गाय माता से माफी मांगी, पर गाय तो नहीं मानी। पूरे ब्राह्मण समाज के लोग आ गए, सब ने मिलकर गाय से विनती की, लेकिन गाय ने कहा कि मेरा शाप तो बदल नहीं सकता। अंत में गाय ने कहा कि अगर कल सुबह में, ऐसी कोई स्त्री आकर इस ब्राह्मण के मुंह पर पानी डाले, जिसने सपने में भी कभी कोई पर पुरुष का विचार नहीं किया हो, तो फिर से यह ब्राह्मण का मुंह पहले जैसा हो जायेगा। सब लोग सोचने लगे और अंत में तय किया कि ऐसी स्त्री तो हमारे राज्य में एक ही है, माता कौशल्या। सब लोग मिलकर राज दरबार में गए और माता कौशल्या को मिलकर यह बात सुनाई, और उस ब्राह्मण पर पानी डालने की विनती की। माता कौशल्या ने कहा कि, कोई बात नहीं, एक ब्राह्मण देवता के लिए मैं कल सुबह में सरयू के किनारे आउंगी और उस पर पानी डाल दूंगी। दूसरे दिन सुबह में माता कौशल्या जाने के लिए तैयार होने लगी तो उनकी दासी ने पूछा, माता इतनी सुबह आप कहाँ जा रही हैं। माता कौशल्या ने सब बात बताई। माता कौशल्या की यह बात सुनकर दासी ने कहा कि माता! ऐसे छोटे से काम के लिए आप को जाने की जरूरत नहीं है, मैंने भी कभी पर पुरुष का विचार नहीं किया, यह काम तो मैं कर दूंगी। माता ने कहा ठीक है, तो तुम चली जाओ। वो दासी तो तैयार होकर नीचे आई और बग्गी में बैठने लगी तब वहां पर एक सफाई कर्मचारी स्त्री, सफाई का काम कर रही थी। उन्होंने दासी से पूछा की, आप इतनी सुबह कहां जा रहे हो, तो दासी ने सब बात उसको बताई। बात खत्म होते ही, सफाईवाली बाई ने कहा कि, इतने से छोटे काम के लिए आपको तकलीफ लेने की जरूरत नहीं है, मैंने भी कभी पर पुरुष का ख्याल नहीं किया, इसलिए यह काम तो मैं कर दूंगी। अंत में सफाई वाली बाई ने सरयू नदी के किनारे जाकर उस ब्राह्मण के मुंह पर पानी डाला और ब्राह्मण का मुंह फिर से मनुष्य का हो गया।

इस छोटी सी कहानी में मुख्य बात तो यह है कि, वो राम-राज्य इसलिए था कि वहां पर राज्य की सारी स्त्री, संस्कारी थी, चाहे वो राजमाता हों, चाहे दासी हो या सफाई वाली बाई। ऐसे संस्कार उपार्जित करने से राम-राज्य आता है। इसलिए हमारा जीवन अद्वितीय बनाने के लिए हमें संस्कार की आवश्यकता है और वो मूलभूत है। अद्वितीय जीवन की यह तीन बातें, समझ, स्वीकार और संस्कार— हमें हमारे जीवन में साकार करने का प्रामाणिक प्रयत्न करना है और तभी जीवन सुदृढ़ बनेगा।

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