संन्यासी और कर्मयोगी के पांच संयम…..

संन्यासी शब्द सुनते ही हमारे मन में भगवे कपड़े, लम्बी दाढ़ी-बाल वाले चेहरे की कल्पना आती है। लेकिन भगवद् गीता के अनुसार संन्यासी कपड़े या चेहरे से नहीं, गुणों और संयम से बन सकते हैं। अगर हम संन्यासी के कपड़े पहनकर इन्द्रियों पर काबू नहीं पा सकते तो कपड़े का कोई महत्त्व नहीं है। अगर हमें धन-दौलत-गाड़ी-बंगला से प्यार है तो संन्यासी होने का कोई महत्त्व नहीं है। संन्यासी का पहला नियम संयम है। इस पर भगवद् गीता में भी मुहर लगाईं गई है और यहाँ तक कहा गया है कि इसके लिए साधु होना जरूरी नहीं है। क्योंकि संयम और स्थितप्रज्ञ होने से सांसारिक व्यक्ति भी, भगवद् प्राप्ति  कर सकता है। यह बात आसानी से हजम नहीं होती, लेकिन भगवद गीता से यह बात सिद्ध है।

अध्याय 5 में श्री कृष्ण संन्यास कर्मयोग की बात करते हैं, और संन्यास के बारे में गलतफहमी को दूर करते हैं। उनके अनुसार यह कोई बाहरी जीवन शैली नहीं (जैसे कि बहुत ज्यादा स्वैच्छिक तपस्या के लिए धीरज रखना), बल्कि यह व्यक्तिगत रवैया और आंतरिक स्वभाव है, जो वास्तविक संन्यास उत्पन्न करता है। भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे व्यक्ति और समूह रहे हैं जो आध्यात्मिक उत्थान के लिए त्याग (संन्यास) को काफी महत्व देते हैं। पर सच्चा संन्यास सांसारिक कर्मयोग में निहित है। संन्यास के अभ्यास के कई प्रकार और इसके चरम सीमा तक पहुंचने के कई स्तर हो सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, त्याग की इच्छा ही भगवान व सर्वाेच्च को जानना और स्वीकार करना है, और यही सभी कुछ का वास्तविक आनंद’ है। इस त्याग की वृत्ति में जीना ही संन्यास कर्म-योग है।

जैसा कि अध्याय 3 में और अध्याय 5 में अर्जुन-कृष्ण की बातों से लगता है भ्रम बरकरार है। तो उनके यह प्रश्न कि क्या उसे कर्म का पूरी तरह त्याग कर देना चाहिए या कर्मयोग करना चाहिए? इसपर श्रीकृष्ण 7वें श्लोक में कहते हैं यह एक झूठा भ्रम है। योग के बिना त्याग अपने आप में परेशानी लाता है| जबकि योग में लगे हुए संन्यासी प्रवृति के लोग शीघ्र ही परम आत्मा को प्राप्त कर लेता है। उस अवस्था में, योगी को लगता है, मै कुछ भी नहीं करता,’’ जबकि उसका शरीर कई तरह से कार्य करता है जैसे- देखना, सुनना, छूना, सूंघना, खाना, चलना, सोना, सांस लेना, बोलना, छोड़ना, पकड़ना, या पलक झपकना, इत्यादि। योगी जन इस समझ को बनाए रख सकते हैं कि ये सभी शारीरिक कार्य केवल इंद्रियों की वस्तुओं के साथ बातचीत है।

पतंजलि द्वारा दिए गए शास्त्रीय योग प्रणाली और संन्यास-योग की तुलना अपरिग्रह अर्थात कोई भी वस्तु संचित ना करना से किया गया है। इसी तरह सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, यह पांच संयम हैं। यही पांच महाव्रत हैं, जिनका पालन करते रहने से इनका प्रभाव होने लगता है। इस प्रकार संन्यास-योग का एक महत्वपूर्ण सामाजिक आयाम है ,जो सामाजिक सद्भाव की प्राप्ति के लिए अत्यधिक अनुकूल है। अध्याय 5, श्लोक 6 में कहा गया हैः

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।

अर्थातः- कर्म संन्यास की भक्ति में कर्म किए बिना परम तत्व को प्राप्त करना मुश्किल है, लेकिन कर्म योग में निपुण ऋषि जन जल्दी ही सर्वाेच्च को प्राप्त कर लेता है।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग पर बल दिया है। उनके अनुसार संसार में व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए धीरे-धीरे क्रोध, लोभ और कामना से ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए और इसे अपनी आदत में शामिल कर लेना चाहिए, पर अपने कर्म को प्रधानता देनी चाहिए। अगर कोई अपने कर्तव्यों को छोड़ देता है तो मन को शुद्ध करना बहुत मुश्किल है_ और मन की शुद्धता के बिना, सच्चा संन्यास हासिल करना संभव ही नहीं है।

कहने का अर्थ यह है कि हिमालय की गुफा में रहते हुए योगी को भले ही ऐसा लगे कि उसने त्याग कर दिया है लेकिन उसके त्याग की सत्यता का पता तब चलता है जब वह सांसारिक जीवन के बीच आता है। उदाहरण के रूप में एक साधु बारह वर्षों तक पहाड़ों में तपस्या की और जब वह कुंभ के मेले में हरिद्वार आए तो मेले की भाग दौड़ में किसी ने गलती से अपना जूता साधु के नंगे पैर पर रख दिया। साधु गुस्से में चिल्लाया, क्या तुम अंधे हो?’’ नहीं देख सकते कि तुम कहाँ जा रहे हो?’’ बाद में उसने क्रोध को अपने ऊपर हावी होने देने के लिए पश्चाताप किया। मतलब शहर में एक दिन रहने से पहाड़ों में बारह वर्ष की तपस्या धुल गई! इसलिए कहा गया है संसार वह अखाड़ा है, जहां हमारे त्याग की परीक्षा होती है।

आशय यह है कि हम में से अधिकांश के लिए, हमारी इच्छाओं का खिंचाव इतना मजबूत है कि वे दुनियादारी में ही लगे रहते हैं। इसलिए मुक्ति हमारे कर्मों से आनी है, त्याग से नहीं। पर श्रीकृष्ण का कहना है ऐसे ही कर्म नहीं करने चाहिए। कर्म का उद्देश्य महत्व रखता है। कर्मयोग एक विचारशील प्रक्रिया है, जहां कोई कार्य करने से पहले सोचता है। आध्यात्मिक रूप से आगे बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा हमारे अज्ञान का अहंकार है। और यह स्वार्थी इक्षाएं पैदा करते हैं जो हमें भौतिक दुनिया की ओर ले जाती है। इसलिए जब हम सोच-समझकर कर्म करते हैं, दूसरे शब्दों में, जब हम यह सुनिश्चित करते हैं कि परिणाम के प्रति लगाव के बिना हम कार्य किए जा रहे हैं, तो हमारी स्वार्थी इच्छाएं धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं।

हम सभी अपने स्वभाव से काम करने के लिए या कर्म के लिए प्रेरित होते हैं। अर्जुन एक योद्धा था, और अगर उन्होंने बिना सोचे समझे अपने कर्तव्य का त्याग कर दिया होता, तो वह जंगल की ओर चला जाता। उसका स्वभाव उसे वहाँ भी काम करने के लिए मजबूर करता। अब चूंकि वह  स्वाभाव से, राजघराने से थे तो शायद कुछ कबीलों को इकठ्ठा करते और खुद को अपना राजा घोषित कर देते। पर ईश्वर की अनुकम्पा से उसने वह किया कि आज संसार उन्हें याद करता है। परमेश्वर की सेवा में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों और प्रतिभाओं का उपयोग अधिक फलदायी साबित हुआ। इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें निर्देश दिया, प्रयत्न जारी रखो, लेकिन उद्देश्य में बदलाव लेकर आने, कर्म के फल की इच्छा का त्याग और अपने कर्म को ईश्वर को समर्पित करो।’’ अर्जुन पहले तो इस युद्ध के मैदान में एक राज्य को बचाने के अनुमान से आए थे। पर अब अपनी सेवा निःस्वार्थ भाव से कर्म को भगवान को समर्पित कर, विजय प्राप्त की और मन को शुद्ध कर परम आत्मा में विलीन हो गए।

इस तरह किसी भी व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से मन को शुद्ध करने के लिए भीतर से सच्चा त्याग करने की इच्छा हासिल करनी होगी। जैसे एक कोमल और कच्चा फल उस पेड़ से चिपका रहता है, जो उसे पालता है। लेकिन वही फल जब पूरी तरह से पक जाता है तो अपने पालने वाले से संबंध तोड़ लेता है। इसी प्रकार भौतिक अस्तित्व से कर्मयोगी को वह अनुभव प्राप्त होता है जो परिपक्व होकर ज्ञान में बदल जाता है। जिस प्रकार कड़ी मेहनत करने वालों के लिए ही गहरी नींद संभव है, उसी तरह गहरा ध्यान उन्हें आता है जिन्होंने कर्म-योग के माध्यम से अपने मन को शुद्ध किया है। इसी अध्याय के पांचवें श्लोक में कहा गया है कि——–

पतसांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।

मतलब की कर्म संन्यास से जो सर्वोच्च स्थिति प्राप्त होती है। वहीं भक्ति में कार्य करने से प्राप्त होती है। इसलिए जो लोग कर्म संन्यास और कर्म योग को एक समान देखते हैं, वे वास्तव में चीजों को वैसे ही देखते हैं जैसे वे हैं।

कहने का अर्थ है कि मन की भावना महत्वपूर्ण है, व्यक्ति के बाहरी क्रियाकलाप नहीं। कोई वृंदावन की पावन भूमि में रहते हुए अगर मन में कोलकाता के रसगुल्ले खाने पर विचार करता है, तो वह वास्तव में कोलकाता रह रहा है। इसके विपरीत, यदि कोई कोलकाता में है और मन को वृंदावन के दिव्य भगवान में लीन रखता है, तो उसे वृन्दावन में ही रहने और भगवद् भक्ति का लाभ मिलेगा। वैदिक शास्त्र कहते हैं मन एव मनुष्याणां कारणंः बंधमोक्षयोः अर्थात मन बंधन का कारण है, और मन ही मुक्ति का कारण है।’’ हमारी चेतना का स्तर हमारे मन की स्थिति से निर्धारित होते हैं।

कहने का अर्थ है, जिन लोगों के पास यह आध्यात्मिक दृष्टि नहीं है वे कर्म संन्यासी और कर्मयोगी के बीच भेद देखते हैं, और बाहरी त्याग को देखते हुए कर्म संन्यासी को श्रेष्ठ घोषित करते हैं। लेकिन जो विद्वान हैं वे देखते हैं कि कर्म संन्यासी और कर्मयोगी दोनों ने अपने मन को ईश्वर में लीन कर लिया है। इसलिए वे दोनों अपनी आंतरिक चेतना में समान हैं। थोड़ा आगे देखें तो तीसरे श्लोक में कहा गया है,

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काघ् क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।

मतलब कि जो कर्मयोगी न तो किसी वस्तु की कामना करते हैं और न ही घृणा करते हैं उन्हें सदा त्यागी समझना चाहिए। सभी द्वैत से मुक्त होकर वे भौतिक ऊर्जा के बंधनों से आसानी से मुक्त हो जाते हैं।

मतलब आंतरिक रूप से वैराग्य का अभ्यास करते हुए कर्मयोगी अपने सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते रहते हैं। इसलिए, वे ईश्वर की कृपा स्वरूप, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों परिणामों को समभाव के साथ स्वीकार करते हैं। भगवान ने इस दुनिया को इतनी खूबसूरती से डिजाइन किया है कि यह हमें अपनी क्रमिक उन्नति के लिए सुख और संकट दोनों का अनुभव कराती है। यदि हम अपने नियमित जीवन को जारी रखते हैं और हमारे रास्ते में आने वाली हर चीज को सहन करते हैं और खुशी-खुशी अपना कर्तव्य निभाते हैं तो दुनिया स्वाभाविक रूप से हमें धीरे-धीरे आध्यात्मिक उन्नति की ओर धकेलती है।

जैसे एक बार लकड़ी का एक टुकड़ा किसी मूर्तिकार के पास गया और कहा, क्या आप मुझे सुंदर बना सकते हैं?’’ मूर्तिकार ने कहा, मै ऐसा करने के लिए तैयार हूं। लेकिन क्या आप इसके लिए तैयार हैं?’’ लकड़ी ने उत्तर दिया, हां, मैं भी तैयार हूँ।’’ मूर्तिकार ने अपने औजार निकाले और हथौड़े और छेनी से तराशने का काम शुरू किया। हथौड़ी मारने पर लकड़ी चिल्लाई, तुम क्या कर रहे हो? बंद करो! यह बहुत दर्द करता है। मूर्तिकार ने बुद्धिमानी से उत्तर दिया, यदि आप सुंदर बनना चाहते हैं, तो आपको दर्द सहना होगा। लकड़ी ने कहा, ठीक है। लेकिन कृपया थोड़ा धीरे- धीरे कार्य करें। मूर्तिकार अपना काम करता रहा और लकड़ी चिल्लाती रही, आज के लिए बहुत हो गया_ मैं इसे और सहन नहीं कर सकती।’’ पर मूर्तिकार अपने कार्य में अडिग था, और कुछ ही दिनों में,उसने लकड़ी को एक सुंदर देवता में बदल दिया, जो मंदिर की वेदी पर बैठने के लिए उपयुक्त थी।

तो फिर इसका मतलब साफ है कि मंदिर की वेदी जैसे पवित्र स्थान पर रहना है तो दर्द सहन करना ही पड़ेगा। भगवद प्राप्ति की इच्छा रखते हैं तो संयम का पालन करना ही पड़ेगा और भगवान के कहे हुए गुणों को अपने जीवन में प्रस्थापित करना पड़ेगा। हमें अपने जीवन को व्यर्थ करना है या सार्थक करना है यह बात हमें खुद निश्चित करनी है। इसलिए अपने जीवन को सुदृढ़ बनाने का दृढ़ संकल्प लीजिये और भगवद् गीता की राह पर चलने का प्रामाणिक प्रयत्न कीजिये।

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