सहजानंद स्वामी (भगवान स्वामिनारायण)

विश्व में जगत गुरु बनकर आज हिन्दुस्तान उभर रहा है। किंतु यह बात तो हजारों साल पहले हमारे ऋषि मुनियों ने वेदों में बताई थी। वसुदेवसुतं देवं कंस चाणुरमर्दनम, देवकी परमानन्दं कृष्णं वंदे जगतगुरुम्। मतबल की आज से पांच हजार साल पहले यह बात की गई है। मगर देखा जाए तो क्या यह बात हमारे देश में गली मोहल्लों में भी मुमकिन लगती है। नहीं क्योंकि हम तो यह भी मानने को तैयार नहीं की हमारी संस्कृति भव्य है, और जो सब को मार्गदर्शन करने वाली है। वैश्विक बातों में भी भारतीय साधु यानि भगवा वस्त्र धारण किया हुआ, हाथ में कमंडल, और झोली लिए भिक्षा मांगता हुआ, यही बात नजर के सामने आती है। किंतु कहां शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद जैसा भगवाधारी और कहां समाज में भगवा पहने घूमते हुए बहुत से ढोंगी बाबा। जिनकी वजह से साधू समाज जो सच में भगवा धारण कर सन्यासी बना है उसकी राह में मुश्किलें पैदा हो जाती है। वैसे तो समाज में हर जगह पर चावल में कंकड तो होते ही हैं चाहे कितना भी अच्छा बासमती क्यों न हो। शायद इसीलिए भगवान ने अपना काम पूर्ण करने के लिए भारत की भूमि पर हल के उत्तर प्रदेश के अयोध्या के पास छ्पैया गाव में आज से 239 साल पहले, एक ब्राह्मण कुटुंब में धनश्याम नाम धारण कर अवतार लिया था। जो बाद में सहजानंद नाम से मशहूर हुए। और महापुरुषों की तरह अपने जीवन के 49 वर्ष में अपना कार्य पूर्ण कर चले गए। जी हां हम बात कर रहे है, ‘भगवान स्वामिनारायण’ के नाम से प्रचलित इस महापुरुष की, आज पूरे विश्व में जिनके 2 करोड़ से भी ज्यादा फोलोअर्स है। जिन्होंने समाज में हिंदू संत और मंदिरों की व्याख्या ही बदल दी। जो समाज के लिए आदर्श है आस्था का स्थान है उसकी पवित्रता, मर्यादा को उन्होंने समाज के उन अछूते लोगों को भी अहसास कराया और उसका आदर्श समाज के सामने रखा और उस परम्परा को आगे अपने आदर्शों के साथ आगे बढ़ाया और उसे गौरवान्वित भी किया।

चैत्र शुक्ल नवमी यानि रामनवमी के दिन रात को बारह बजे अयोध्या के छपैया गांव में पिता धर्म (कहि हरिप्रसाद लिखा है) और माता भक्ति के घर मे बाल घनश्याम पांडेय का जन्म हुआ था। बचपन में ही बालक के पैर में पप्र और व्रज के चिन्ह देख के ज्योतिष ने बताया था की यह बालक आगे जाकर लोगों के जीवन में सही दिशा और राहबर बनने का काम करेगा। उनके दो बड़े भाई भी थे। पिता ने बचपन में ही उन्हें रामायण, महाभारत गीता पुराण जैसे ग्रंथो का पाठ पढ़ाया था। 11 साल की उम्र में उन्होंने सारे शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। बाल्यकाल में ही माता पिता के देहावसान के बाद बड़े भाई (रामप्रताप और छोटे भाई इच्छा राम) के साथ खटराग होने से उन्होंने गृह त्याग कर जंगलों में और पहाड़ो में विचरण कर तप करने लगे थे। ऐसे उनको ग्यारह साल बित गए। उनका तपस्वी वेश देख सब उनके नीलकंठ वर्णी के नाम से पुकारते थे। इस दौरान वह अष्टांग योगी एैसे गोपाल योगी से मिले और उनसे योग की शिक्षा प्राप्त की। वह उत्तर हिमालय, दक्षिण में कांची, रामेश्वर ऐसे ही पैदल 12 हजार किलोमीटर का परिभ्रमण करते हुए गुजरात के मागरोल गाव के लोज गांव में पहुंचे। यहां उनका परिचय मुक्तानंद स्वामी से हुआ जो की रामानंद के शिष्य थे। उनके आश्रम में कथा में स्त्री पुरुष दोनों आते थे। उन्होंने इस बात पर गौर की कि साधुओं का ध्यान स्त्रियों की तरफ जा रहा है, अंततः उन्होंने स्त्री और पुरुष दोनों की बैठने की व्यवस्था अलग करवा कर कठोरतापूर्वक पालन करने को कहा जो मुक्तफ़ानंद जी ने शिरो मान्य रखा। यहीं उन्होंने साधु यानि स्त्री और लक्ष्मी दोनों का त्यागी यह बात सब में दृढ़ करा दी। बाद में उन्हें यही दीक्षा दे कर, उद्धव संप्रदाय की गद्दी उन्हें सौंप कर उनका नाम सहजानंद रखा। यह दिन था जो लोगों के जीवन में सहज आनंद लाने का काम करता है। यह दिन था कार्तिक सूद एकादशी सन 1800 का। उन्होंने समाज के बहुत सी कुरीतियां सुधारने का प्रयास भी किया है। जैसे की सती प्रथा, बलिप्रथा, बच्ची का जन्म होते ही उसे ‘दूध पीती’ कर देना मतलब अगर लड़की जन्म लेती है तो उसे जन्म के साथ ही दूध के बर्तन में डूबो के मार देना।

मुत्तफ़ानंद स्वामी के देहांत के बाद सहजानंद जी ने घर-घर जाकर सबको स्वामिनारायण मंत्र का जाप करने को कहा। मतलब नारायण ही मेरा स्वांमी है यह भावना से उसका मत्र जाप किया जाए। तो भगवान अवश्य मदद करता है। उनके शिष्यों को पांच व्रतो का पालन करने को कहा – मांस न खाना, मदिरा नहीं पीना, चोरी नहीं करना व्यभिचार का त्याग कर स्वधर्म का पालन करना। उन्होंने समाज में साधू और मंदिरों का पुनरोद्धार किया। शायद इसलिए गुजराती में कहावत है की साधू बनना है तो स्वामिनारायण का बनना। साधू मतलब संसार का त्याग इसलिए उन्होंने स्त्री का त्याग नहीं लेकिन उसका मुह नहीं देखने को कहा ताकि कोई विकृति मन में पैदा न हो। और लक्ष्मी को हाथ नहीं लगाना ताकि कोई भौतिक चीजाें की तरफ आकर्षण  पैदा न हो। उन्होंने अपने जीवन काल में शिखर बद्ध ऐसे 6 मंदिर बनवाये और 500 सन्यासी को दीक्षा दी जिनके जीवन में उनके बताए हुए व्रत और नियम को कठोर पालन करते हैं। उनके जीवन काल में उनकी वाणी, विचार और कार्य से प्रभावित होकर उनके अनुयायियों की संख्या 17 लाख तक पहुंच गई थी ऐसा माना जाता है। कोई उन्हें कलियुग का भगवान मानते है तो कोई विष्णु का अवतार भी। लेकिन उन्होंने समाज में एक आदर्श साधु समाज और स्वच्छ मंदिर की परिकल्पना बनाने का भागीरथ कार्य किया है। आज भी उनकी रचित शीक्षापत्री का बड़े ही आदर के साथ पठन किया जाता है। इतना ही ही नहीं उसमें बताए गई बातों का पालन भी करने वाले हजारों की तादात में लोग देखने को मिलते हैं।

सहजानंद स्वामी ने अपने जीवन का ज्यादातर समय गुजरात के गढ्डा गांव में दादा खार्चर नामक एक भक्त को यह ही गुजारा है। वैसे भी उनकी कर्म भूमि ज्यादातर गुजरात के गांव ही रही है। उन्होंने समाज के पिछड़े गिनने जाने वाले लोगो में मांस मदिरा का त्याग करा कर उन्हें व्यसन मुक्त करने का बहुत बड़ा काम किया है। यहां तक की भगवान ने गीता में कही बात जो तामसी भोजन है उसका त्याग यानि प्याज लहसुन का भी त्याग करना उन्होंने बताया। अपने जीवन काल में लोगों का जीवन उन्नत बनाने का काम किया। और यह परम्परा आज भी उनके आगे की पीढ़ी में देखने को मिलाती है। यही परम्परा आगे बढ़ाई उनके द्वारा स्थापित संस्था बीएपीएस स्वामिनारायण संस्था। जिन्होंने हाल ही में पूरे विश्व में 150 से ज्यादा शिखर बद्ध मंदिर बनाए है साथ में व्यसन मुक्त समाज बनाने का काम भी जारी है। आज समाज में 2 करोड़ से ज्यादा लोग इनके फोलोअर्स हैं।

-संजय राय

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