भगवत गीता – एक अमृत धारा….शरीर, वाणीऔर मन पर नियंत्रण करो ……

शरीर, वाणीऔर मन पर नियंत्रण करो ……

भगवत  गीता, ज्ञान का एक समुद्र है जहां पर मनुष्य जीवन जीने के लिए और इसे सार्थक बनाने के लिए सभी प्रकार के उपाय मौजूद है I गृहस्थ जीवन जीना हो या सामाजिक जीवन, आध्यात्मिक वृद्धि चाहते हो या आर्थिक वृद्धि, मन की शांति चाहिए या शरीर की, खाने के तरीके चाहिए या सोने के, दोस्ती और दुश्मनी का ज्ञान चाहिए या मित्र और बंधु का, प्रभु के प्रिय होने का उपाय चाहिए या भगवत प्राप्ति का ……. हर कोई उपाय भगवत गीतामें मौजूद है | सालों  से हम लोगों ने भगवत  गीता को न्यायलय में सौगंध  खाने का और मृत्यु होने पर शान्ति पाठ करने का एक लेबल भगवत  गीता को दे दिया है, लेकिन भगवत  गीता सिर्फ इन बातों  के लिए नहीं है | भगवत  गीता हमें जीवन जीने की सच्ची राह दिखाती है, मुक्ति का सच्चा मार्ग दिखाती है, एवं जीवन के हर मोड़ पर हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए उस बात का मार्ग दर्शन करती  है | यह एक ऐसा ग्रन्थ है ,जिसे  नियमित रूप से पढ़ा जाए और उसमें  कही बातों को जीवन में प्रस्थापित किया जाए तो जीवन स्वर्णमय  एवं सार्थक बन सकता है | अध्याय 18, भगवत गीता का सबसे बड़ा अध्याय है जिसमें कुल 78 श्लोक हैं। एक तरह से, यह भगवत गीता के सभी अध्यायों में पहले बताए गए सभी महत्वपूर्ण सिद्धांतों का सारांश भी है।

श्लोक 51, 52 और 53 को इस अध्याय में संपूर्ण भगवत गीता का सार माना जा सकता हैं। इसमें कहा गया है बुद्धि से शुद्ध होकर मन को निश्चय से वश में करके, इन्द्रिय तृप्ति के विषयों को त्याग कर, राग-द्वेष से मुक्त होकर, एकांत स्थान में रहने वाला व्यक्ति, कम खाता है और शरीर और जीभ को वश में रखते हुए सदा समाधिस्त रहता है और अनासक्त हो कर मिथ्या अहंकार, बल, अभिमान, काम, व  क्रोध से रहित होता है। वह भौतिक वस्तुओं के आकर्षण में नहीं पड़ता है तो ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप से आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में होता है।कहने का तात्पर्य यह है कि जब कोई ज्ञान से शुद्ध होता है, तो वह स्वयं को सद्गुण से युक्त रखता है। इस प्रकार व्यक्ति का मन पर नियंत्रण हो जाता है और वह नियंत्रक बनकर  हमेशा समाधिस्त रहता है। उसके पास जीवन की कोई शारीरिक अवधारणा नहीं होती और वह झूठा गर्व नहीं करता है। भगवान की कृपा से उसे जो कुछ भी प्रदान किया जाता है, उससे वह संतुष्ट होता है, और वह कभी भी इन्द्रिय तृप्ति के अभाव में क्रोधित नहीं होता। न ही वह भौतिक लालसा में पड़कर विषयों को हासिल करने का प्रयास करता है। वह ब्रह्मलीन होकर आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में भौतिक अवधारणा से मुक्त होकर सुख और शांति का आनंद प्राप्त करता है। वह जीवन की किसी अवस्था में उत्तेजित नहीं हो सकता। इस प्रकार पिछले अध्यायों में अर्जुन की शंकाओं और दुविधाओं को दूर करने के लिए कृष्ण आत्म ज्ञान की बातें कर रहे थे।

18 वेंअध्याय में वे सर्वोच्च ज्ञान-निष्ठ होने की बात करते है और इसके लिए सभी तत्वों की व्याख्या करते हैं । उनके अनुसार सर्वोच्च ज्ञान-निष्ठ होना अकेले ही आत्म-ज्ञान की पूर्णता सुनिश्चित कर इसके समक्ष बुद्धि प्राप्त करने में सक्षम है। उन्होंने इस सर्वोच्च ज्ञान-निष्ठ होने की व्याख्या में तीन श्लोकों में वर्णन किया है,जिसमें वे ज्ञान की बातें करते है। साथ ही इस स्तर पर साधक के लिए विशिष्ट ध्यान केंद्रित करने के महत्व को समझाते हैं। इन  बातों को हम सांसारिक लोगों को ध्यान में लेना बहुत ही जरुरी है, क्योकि सामान्यत: इन सभी बातों  के साथ ही हमारा जीवन चलता है ।

अध्याय 18 के 51 वें  से 53वें श्लोकों में उन्होंने कहा है,’

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्यच |

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्यच II 51

विविक्त सेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ।

ध्यान योग प्रो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः || 52

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते || 53

इसका मतलब है कि, जो व्यक्ति विशुद्ध या सात्त्विक बुद्धि से परिपूर्ण होकर, वैराग्य धारण कर, एकान्त में भी आनंदित रहता है और नियमानुसार भोजन करने वाला यह साधक धैर्य पूर्वक इन्द्रियों को अपने वश में करके, शरीर वाणी व  मन पर नियंत्रण करते हुए विषयों का त्याग कर, राग द्वेष को छोड़ कर निरन्तर ध्यान योग के साथ जीवन यापन करता है वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर शान्त होकर ब्रह्म प्राप्ति का पात्र बन जाता है। इन श्लोकों में कहा गया है कि व्यक्ति जो स्वयं को समझने में सक्षम है वही बुद्धिमान है और इसके लिए वह मन की स्थिरता से इसे वश में कर लेता है यानी वह बाहरी और आंतरिक वस्तुओं से दूर होकर ध्यान केंद्रित बनता है। भौतिकता के चलते उत्पन्न प्रेम और घृणा को दूर करने के लिए एकांत का सहारा लेकर बाधाओं से मुक्त रहते हुए संयम पूर्वक न तो बहुत ज्यादा और न ही बहुत कम भोजन करने के साथ-  साथ वाणी, शरीर और मन को संयमित कर लेता है। सदा ध्यान योग में रहते हुए वह हर चीज के लिए वैराग्य पैदा कर स्वयं के अनुभव करने में सुख पाता है और ब्रह्मलीन होने की स्थिति को प्राप्त करता है।

कहने का मतलब यह है कि, सभी बंधनों से मुक्त होकर, जो स्वयं का अनुभव करता है वहीं  वास्तव में  ब्रह्मलीन हो सकता है।इन श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं ,’साधक की बुद्धि शुद्ध होनी चाहिए। केवल ऐसी शुद्ध बुद्धि ही मन को आध्यात्मिकता में रहने के लिए प्रेरित कर सकती  है।’ आत्मा को प्रतिबिंबित करने के लिए हमेशा बुद्धि की शुद्धि आवश्यक है। दृश्य जगत से अधिक, अदृश्यस्रोत, ब्रह्म, मन और बुद्धि को आकर्षित करता है इसलिएअपने आप पर पर्याप्त नियंत्रण, शारीरिक और आंतरिक अनुशासन, जो इस ज्ञान-निष्ठ  होने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है इसका होना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए इच्छा शक्ति का होना जरूरी है। क्योंकि मन और बुद्धि की तरह, इच्छा भी एक आंतरिक घटक है। साधक को ठीक से इसकी  पहचान कर लेनी चाहिए और लगन से इसका नियंत्रण करना चाहिए। क्योंकि याचना की कमजोरी या अक्षमता का आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थान नहीं है।

साथ ही साधक को वस्तुओं के प्रति बहुत अधिक संपर्क से बचना चाहिए क्योंकि बातचीत तभी जरूरी होती  है जब हमारा उद्देश्य बाहरी हो और उसका सम्बन्ध आसपास के समाज से हो। केवल ज्ञान-निष्ठा  होने यानी ज्ञान प्राप्ति के लिए अनन्य समर्पण के साथ जीवन यापन करने के लिए तैयार व्यक्ति के लिए, किसी बाहरी खोज का सवाल कहां है? भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि साधक का एक मात्र ध्यान मन और बुद्धि पर होना चाहिए। इच्छा और घृणा, जो आम तौर पर मन को वश में कर लेते हैं, उन्हें त्याग देना चाहिए क्योंकि साधक को इनसे छुटकारा पाकर प्रसन्नता का अनुभव होता है और यह मन को सुंदर, हर्षित और शांत बनाता है। इस तरह अनन्य ज्ञान-निष्ठ  होने के लिए, एकान्त स्थान पर जाने से व्यक्ति स्वाभाविक रूप से विविध अंतःक्रियाओं से मुक्त हो जाता है। जब मानसिक व्याकुलता पैदा करने के लिए कोई बातचीत नहीं होती है, और जब प्रकृति अपनी प्रचुरता के साथ साधक को घेर लेती है, तो मन अपनी आंतरिक गहराई में डुबकी लगाने की कोशिश करता है क्योंकि प्राकृतिक परिवेश का प्रभाव काफी प्रबल होता है।

भगवान् कृष्ण के कहने के मुताबिक़, एक कारक जो इस आंतरिक खोज को और सुगम बनाता है, वह है वैराग्य। तीव्र और स्वस्थ वैराग्य के लिए इसी प्रकार के ग्रंथों का पाठ करना चाहिए और इसके माध्यम से स्वयं को प्रेरित किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पहले मन पर वस्तुओं  और उनके प्रभाव काम कर रहे थे। लेकिन वैराग्य-प्रेरक लेखन और विचारों का अपना प्रभाव होता है। श्रीमद भगवत गीता में ऐसे कई भाग हैं जो प्रमुखता से वैराग्य की बातें करता हैं। आत्मनिरीक्षण के इन सभी प्रयासों से मन को समृद्ध बनाने का प्रयत्न करते हुए काफी कुछ सीखना चाहिए। अनन्य ध्यान और एकाकी जीवन का एकमात्र उद्देश्य मन के आंतरिक कक्षों में प्रवेश करना और वहां छिपे सूक्ष्म नकारात्मक लक्षणों की पहचान करना है। उसके पश्चात एक एक को अथक गहन ध्यान से हटा देना चाहिए। इस प्रकार कृष्ण काफी सावधानी से साधक को इस तरह की आंतरिक परीक्षा की ओर ले जाते हैं और साधक को एक के बाद एक दोष और दागों को दूर करने में मदद करते हैं! अहंकार एक बहुत ही सूक्ष्म अवधारणा है जिसे समझने के लिए इस पर गहराई से विचार करना चाहिए। यह ’मैं’ की भावना है, जिसके चलते लोग कार्य करते हैं और परिणाम स्वरुप आनंद और पीड़ा भोगते हैं। साधक होने, लक्ष्य की ओर बढ़ने या उसे प्राप्त करने का ’आध्यात्मिक-अहंकार’ भी गलत है। इससे होने वाली हानि से बचना चाहिए क्योंकि ऐसी  कोई भी सोच मन को बहुत संकुचित कर आत्म साक्षात्कार की शुद्धता को नष्ट कर देती  है। ताकत हमेशा कमजोर को वश में करने के लिए जानी जाती है इसलिए यह आध्यात्मिक नम्रता और वैराग्य का विरोधी है। साधक में श्रेष्ठता या हीनता नहीं होनी चाहिए। उसका ध्यान समता पर होना चाहिए।

कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति को इच्छा, घृणा और अधिकार की खोज कर उन्हें सावधानीपूर्वक दूर करना चाहिए क्योंकि इस प्रकार ही मन पर्याप्त रूप से शांत हो सकता है और साधक आत्म साक्षात्कार की अवस्था को प्राप्त कर सकता है। बाहरी दुनिया तो दिखता ही है पर वह स्रोत जो इस बाहरी  दुनिया की रचना करता है वह हमारे भीतर है, जो कहीं अधिक भव्य है और कई परिणाम पैदा करता है। यही कारण है कि लोग तप और तपस्या करना पसंद करते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। भारत अपनी इसी तपस्वी परंपरा और संस्कृति से समृद्ध है और विश्व विख्यात है। इस देश में हजारों लोग आज भी एक परंपरा के अनुसार बेहद सादगी से रहते हैं। उपनिषद, भगवतगीता और अन्य ग्रंथों की उत्पत्ति इन्ही सादगीपूर्ण जीवन का परिणाम है और ये यहां के लोगों के जीवन पर काफी प्रभाव डाला है।इस प्रकार की गहरी आंतरिक समृद्धि सच्चे आध्यात्मिक जीवन और स्वयं की खोज का मूल है। आज अधिकाधिक  लोग केवल मन को आनंदमय बनाने और पूर्णता के लिए धन, प्रसिद्धि और अन्य संसाधनों को प्राप्त करने के लिए तरसते रहते हैं। यदि आंतरिक ज्ञान-निष्ठ  होकर भी उतना ही आनंद हो और तृप्ति उससे कहीं ज्यादा प्राप्त की जा सकती है, तो क्या एक तर्कसंगत मानव आंतरिक पथ पर चलना पसंद नहीं करेगा?

वास्तव में, आध्यात्मिकता मन की जटिलताओं में प्रवेश करने, उसकी समस्याओं और दबावों को समझ कर शांति, संतोष और तृप्ति के रहस्य को समझने के लिए इन भौतिक लालसाओं से बाहर निकलने के अलावा और कुछ नहीं है। इसलिए 53 वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं,मन के सभी मैल को छोड़ने पर, अहंकार, इच्छा, अभिमान, घृणा और अधिकार से मुक्त होकर, साधक वास्तव में ब्रह्म को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। वे कहते हैं यदि मन को शांत वातावरण में रखा जाए, तो भी यह विचार उत्पन्न करेगा जो अंततः शारीरिक कार्यों, या वाणी में परिणामित होगा। शारीरिक क्रियाओं और वाणी को नियंत्रित करके साधक अपने मन को भी नियंत्रित कर सकेगा। वह अपने मन को स्वयं पर स्थिर कर सकेगा, यही ध्यान है,और स्वयं की प्रकृति पर चिंतन करने में सक्षम बनता है। यह गहन विषय जरुर है लेकिन मनुष्य जीवन अच्छे से जीने के लिए इन सभी बातो का ख्याल रखना बहुत  जरुरी है I क्योंकि  जब तक हम हमारे शरीर, वाणी और मन पर काबू नहीं पा सकते, हमारे पास दुनिया भर की मुश्किलें खड़ी रहेगी I तो  इस बात को सुनिश्चित करें कि , हमारा जीवन जीते जीते, हमारी सांसारिक गतिविधियां करते हुए हम  हमारे इन तीन  मुख्य अंश शरीर, वाणी और मन पर कंट्रोल करेंगे | अगर ऐसा करने में हम कामयाब हो जाते हैं,तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा | भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने जिन बातों  को ध्यान में रखने के लिए  कहा है, अगर हम वो कर लेते हैं  तो उनका परिणाम हमेशा ही अच्छा होगा यह भगवान का वरदान है |

 

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