विकास की अंधी दौड़ में वासना और विकारों  से दूर रहिए…….

आज हर कोई  विकास की राह पर एक अविरत दौड़ लगा रहा  है I बात तो अच्छी है लेकिन इस राह में चलते हुए हमें कई सारी बातों  का ध्यान रखना जरुरी है, जो आजकल विकास की राह  पर दौड़ लगाते लोगों  में अक्सर देखा नहीं जाता I वासना और विकार दोनों मनुष्य जीवन के दुश्मन माने जाते हैं  I भगवद गीता में अध्याय-2 के श्लोक 33   और 34 के अनुसार, व्यक्ति को जीवन जीते हुए जो भी युद्ध लड़ने है वो धर्मयुक्त होने चाहिए, जिससे व्यक्ति को समाज की अन्य पीड़ाओं   का सामना करना न पड़े |
‘अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रानमं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥
इसका अर्थ है, हे मनुष्य अगर तू जीवन में धर्मयुक्त युद्ध नहीं लड़ेगा  तो अपने स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करेगा I तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन भी करेंगे | और सम्मानीय  व्यक्ति के लिए अपकीर्ति, मरण से भी अधिक  होती है | यहां  पर भगवान श्री योगेश्वर ने साफ- साफ निर्देश दे दिए हैं कि हमें अपना युद्ध  कैसे लड़ना है | हमारे जीवन में वासना और विकार ही ऐसी बातें है, जो अगर हम ध्यान न रखे  तो हमें सालो पीछे कर सकती है| वासना और विकारों की एक छोटी सी गलती भी, व्यक्ति की सालों  से कमाई हुई  इज्जत और सम्मान  को बहुत पीछे कर देती है |
मोह, वासना, चाहत या आसक्ति सभी एक ही जैसे मतलब रखते हैं , इनमें बस थोड़ा ही  प्रयोगात्मक अंतर है। यह एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो किसी व्यक्ति, वस्तु, या परिस्थिति को पाने के लिए तीव्र इच्छा पैदा करती है। मोह कोई भी रूप ले सकती है जैसे कामेच्छा, पैसा या शक्ति हासिल करना, जरूरत से ज्यादा भोजन इत्यादि। यह एक प्रकार से जुनून के समान है, लेकिन जुनून से अलग है, क्योंकि जुनून व्यक्ति को दूसरों की भलाई के  लिए तय किये गए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है जबकि मोह या वासना में ऐसी इच्छा नहीं होती, सिर्फ हासिल करने की लालसा होती है।
वासना में इन्द्रियों के विषय पर निर्भरता होती है, परिणामस्वरूप आत्मा की उसके प्रति आध्यात्मिक अधीनता होती है, लेकिन प्रेम या जुनून आत्मा को प्रत्यक्ष रूप से जोड़ता है और उस वास्तविकता के साथ समन्वय स्थापित करता है, जो उस आसक्ति के पीछे छिपा है। इसलिए काम से भारी और प्रेम, लगन या जूनून को हल्का अनुभव किया जाता है। वासना में जीवन का संकुचन होता है और जबकि जुनून या प्रेम में अस्तित्व का विस्तार होता है। यदि आप पूरी दुनिया से प्यार करते हैं तो आप पूरी दुनिया में रहते हैं, लेकिन वासना में जीवन का पतन और सामान्य भावना है। एक रूप पर निराशाजनक निर्भरता है, जिसे दूसरे के रूप में माना जाता है।
इस प्रकार, वासना में अलगाव और पीड़ा है, लेकिन प्रेम में एकता और आनंद की अनुभूति होती है।
धार्मिक  ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार वासना को अनैतिक इच्छा और जुनून को नैतिक रूप से स्वीकृत कर जुनून और वासना के बीच अंतर स्पष्ट  किया गया है। मोह या वासना को अनैतिक माना गया है क्योंकि यह अपनी प्रकृति के अनुसार अनुचित रूप से कार्य करता है। इसके चलते व्यक्ति किसी वस्तु को  हासिल करने, कामेक्षा को शांत करने या खाने की भूख मिटाने  के दौरान उसकी इच्छा ही बुद्धि को नियंत्रित करती है और जबकि जुनून या लगन बुद्धि के बजाय इच्छा को नियंत्रित करती है। जुनून, अपनी ताकत की परवाह किए बिना, ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करता है, क्योंकि इसके पीछे उदेश्य, कार्य और इरादे सृजनशीलता का होता है।
विकास की अंधी दौड़ में आधुनिक विचार से मोह या वासना के साथ कोई गलत बात नहीं है, लेकिन लोगों का तर्क यही होता है कि मोह के चलते ही जीवन सकुशल चलाय मान है। पर नैतिकता के अभाव  में मनुष्य मोह के बंधन में बंध कर कई गलत कार्य भी कर बैठते हैं। मोह में पड़कर मनुष्य किसी को भी हानि पहुंचाने  से नहीं चुकता। महात्मा गांधी भी अकसर कहते रहते थे कि मनुष्य अपनी न्यूनतम जरूरतों से  ज्यादा लेता है, तो वास्तव में वह चोरी करता है। गांधी जी का यह मानना गलत नहीं है, परंतु आज मनुष्य को हर वो चीज जो उसके पास नहीं है उसके लिए जरूरत लगती ही है। आज कल मोह के चलते लोग दूसरों की जरूरत को अपना मानने लगते हैं। जैसे आपको कपड़ो की जरूरत नहीं पर क्योंकि आपकी दोस्त ने नए फैशन के कपड़ें खरीदे हैं तो आपको अचानक कपड़ो की जरूरत पड़ जाती है। हम यह भी सोचते हैं  कि हमारे पास एक ही जीवन है, तो उसे खुल कर जिये । सबकुछ करें, कंजूसी का क्या फायदा, जब आखिर में इस दुनिया से एक दिन जाना ही है।
मोह से कैसे छुटकारा मिले जब दिन पर  दिन जीवन में सुविधाएं बढ़ाने वाली नई- नई तकनीकें और चीजें  आ रही हैं। दुनिया में मानव जाति इतनी प्रगति कर रही है। किसी व्यक्ति, वस्तु का मोह यदि इंसान को जीवन जीने की प्रेरणा देता है, तो क्या ये गलत है? इंसान समझदार है। वह अपनी सीमा खुद ही तय कर सकता है। पर इसको हमें सूक्ष्मता से समझना होगा क्योंकि महाभारत जैसे युद्ध सिर्फ मोह के चलते ही हुए। सत्ता का मोह, पुत्र का मोह, शक्ति का मोह।
गीता के पहले श्लोक में धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं-
“धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय:” ||
मतलब की हे संजय, कुरुक्षेत्र के कुरुक्षेत्र में धर्म युद्ध के लिए सभी एकत्रित हुए हैं। तो वहां मेरे पुत्र और पांडव क्या कर रहे हैं !!
दोनों सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध करने के लिए एकत्रित हुई हैं। धृतराष्ट्र इस बात को भली भांति जानते हैं फिर भी उन्होंने संजय से पूछा कि उनके पुत्र और पांडु के पुत्र युद्ध के मैदान में क्या कर रहे थे? जाहिर सी बात है युद्ध के लिए एकत्रित हुए हैं तो लड़ाई ही करेंगे, फिर उन्होंने ऐसा क्यों पूछा ?
प्रश्न पूछने का मंतव्य बिल्कुल साफ है, अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस बात की उत्सुकता है कि यहां हो क्या रहा है। वे परिणाम भली-भांति जानते हैं कि युद्ध में एक -दूसरे पक्ष के लोगों की हत्या करेंगे फिर भी अपने पुत्र मोह में उनके मन में यही लालसा है कि हमारे पुत्र सुरक्षित तो हैं ना ! धृतराष्ट्र के  पुत्र मोह ने उनके आध्यात्मिक ज्ञान को धूमिल कर दिया और पुण्य के मार्ग से भटका दिया इसलिए उनके मन में आशंका थी। क्योंकि उन्होंने सही उत्तराधिकारियों से हस्तिनापुर के राज्य को हड़प लिया था इसलिए दोषी महसूस करते हुए, उनकी अंतरात्मा ने उन्हें इस लड़ाई के परिणाम के प्रति चिंता पैदा की जिसकी वजह से वे अंधे  होते हुए भी युद्ध के परिणाम के बारे में पल पल पूछते हैं।
धृतराष्ट्र द्वारा धर्मक्षेत्र शब्द का प्रयोग किया गया है, जो यह बतलाता है कि वह महाभारत के युद्ध को एक योद्धा का नैतिक कर्तव्य मानते हैं। यह अर्जुन और कृष्ण संवाद का मंच तैयार करता है कि वास्तव में योद्धा के रूप में लड़ना उसका नैतिक कर्तव्य है। भले ही कृष्ण धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन का विरोध कर रहा हो, जिसके सिंहासन के दावे पर वे लड़ रहे हैं। कुरुक्षेत्र को शतपथ ब्राह्मण में कुरुक्षेत्रः देव यज्ञम के रूप में वर्णित किया गया है, वैदिक पाठ्यपुस्तक अनुष्ठानों का विवरण देती है। इसका अर्थ है ‘‘कुरुक्षेत्र मतलब खगोलीय देवताओं का बलिदान क्षेत्र।‘‘ इसलिए, इसे धर्म का पोषण करने वाली पवित्र भूमि के रूप में माना जाता था।
धृतराष्ट्र को डर है कि पवित्र भूमि उनके पुत्रों की मनः स्थिति को प्रभावित कर सकती है। उन्हें लगता है यदि भेदभाव के इस माहौल में बदलाव होता है, तो वे एक समझौता कर सकते हैं। और यदि समझौता होता है तो  समस्या जस की तस रहेगी। उन्हें इन संभावनाओं पर बड़ी नाराजगी है, और कोई समझौता के बजाय मन ही मन युद्ध आगे बढ़ने की चेष्टा करते रहें। हालांकि  उन्हें इस  युद्ध का  परिणाम नहीं पता था फिर भी अपने बेटों के भाग्य का निर्धारण करना चाहते हैं । इसलिए
उन्होंने संजय से युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं की गतिविधियों के बारे में पूछा।
कृष्ण उस समाज की धार्मिक व्यवस्था को बहाल करने के लिए अवतरित हुए हैं, जिस पर धृतराष्ट्र शासन करते हैं। गीता के पहले श्लोक से ही धृतराष्ट्र के कुशासन द्वारा प्रस्तुत सामाजिक अव्यवस्था को दूर करने का प्रयास  शुरू हो चुका है। विष्णु के एक अवतार के रूप में भगवान कृष्ण ने भगवत गीता में अध्याय 16, श्लोक 21 में यह घोषणा करते हैं कि, मोह या वासना, नरक या नरक के द्वारों में से एक है। अर्जुन ने पूछा अनिच्छा होते हुए भी पाप कर्मों के लिए प्रेरित किया जाता है, जैसे कि बल द्वारा किया गया हो? तब कृष्ण ने कहा- यह केवल वासना है। अर्जुन, जो रजोगुण की भौतिक विधा के संपर्क से पैदा हुआ है और बाद में क्रोध में बदल गया है, वह इस दुनिया का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। जैसे अग्नि धुएँ से ढकी होती है, जैसे दर्पण धूल से ढका होता है, या जैसे भ्रूण गर्भ से ढका होता है, वैसे ही जीव इस वासना के विभिन्न अंशों से ढका होता है।
इस प्रकार बुद्धिमान जीव की शुद्ध चेतना वासना के रूप में अपने शाश्वत शत्रु से आच्छादित हो जाती है, जो कभी तृप्त नहीं होती और जो आग की तरह जलती रहती है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके बैठने के स्थान हैं। उनके माध्यम से वासना जीव के वास्तविक ज्ञान को ढक लेती है और उसे भ्रमित करती है। इसलिए, हे अर्जुन शुरुआत में ही इंद्रियों को नियंत्रित करके पाप के इस बड़े  प्रतीक – (वासना या मोह) पर अंकुश लगाएं, तथा ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के बल पर इस संहारक मानसिकता का वध करें। काम करने वाली इंद्रियां सुस्त पदार्थ से बेहतर होती हैं। मन इन्द्रियों से ऊँचा है। बुद्धि अभी भी मन से ऊंची है और वह आत्मा बुद्धि से भी ऊँचा है। इस प्रकार, अपने आप को भौतिक इंद्रियों, मन और बुद्धि से पारलौकिक जानकर, व्यक्ति को जानबूझकर आध्यात्मिक बुद्धि द्वारा मन को स्थिर करना चाहिए और इस प्रकार – आध्यात्मिक शक्ति से – काम के रूप में जाने जाने वाले इस अतृप्त शत्रु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
भगवद गीता में ख़ास कर के दूसरे  अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने व्यक्ति को अपने मन और इन्द्रियों का निग्रह करने के लिए प्रतिबद्ध  होने को कहा है, जो एक व्यक्ति के जीवन विकास के लिए अत्यधिक जरुरी  बात है I अध्याय-2 के श्लोक-66  में भगवान ने कहा है कि,
“नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌” ॥
इस श्लोक के द्वारा भगवान ने कहा कि, न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अंतःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? यहाँ पर साफ़ बताया गया है कि, मनुष्य को जीवन में शांति पाने के लिए अपने मन और इन्द्रियों का निग्रह करना जरुरी है, मतलब की वासना और विकारों से दूर रहेने से ही मनुष्य जीवन की प्रगति हो सकती है |
अंततः हम देखते है कि महाभारत में युद्ध का परिणाम सत्य और धर्म के पक्ष में होता है और मोह में पड़े लोगों का विनाश ही होता है। तो पूरी बात का सार यही है कि, कोई भी कार्य नैतिकता और अनैतिकता के तराजू में ही तोलकर करना चाहिए। आसक्ति  या मोह में पड़कर कार्य करने से कई गलत और अनैतिक कार्य कर बैठने की संभावना रहती है जिसका परिणाम अंततः पछतावा के रूप में सामने आता है ।
आज हर किसी  को विकास चाहिए और विकास के पथ पर हम सब दौड़ रहे हैं | विकास हमारे लिए जरूरी ही है लेकिन इस पथ पर अगर हमने वासना और विकारों  पर ध्यान नहीं दिया, तो हमारी विकास यात्रा अधूरी रह सकती है| तो  संकल्प करे कि,  अपनी विकास यात्रा के भीतर अपने  अन्दर उत्पन्न होने वाली  वासना और विकारो से कोसों दूर रहेंगे और अपना जीवन सार्थक बनाएंगे|

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