अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखो, उसके गुलाम मत बनो ….. !

84 लाख योनियों में से मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ है, जो हम सब को मिला है और इसलिए ही हमें हमारे मनुष्य जन्म को सार्थक बनाने के बारे में जरूर सोचना चाहिए I मनुष्य जन्म की सबसे कमजोर बात उनकी इच्छा और अपेक्षा है, जिसकी वजह से व्यक्ति अपनी मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया में पीछे रह जाता है I इच्छा करना बुरी चीज नहीं होती लेकिन इच्छा को कोई भी प्रकार से पूरी करने की लगन रखना बुरी बात है I किसी चीज के प्रति लगाव इच्छाएं पैदा करता है और इसकी पूर्ति होते रहने से लालच पैदा होती है I भगवद गीता भारतीय संस्कृति का एक ऐसा ग्रंथ है  जिसके भीतर मनुष्य जीवन की हर समस्या का समाधान है I भगवद गीता के अध्याय-२ के ६२ वे श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि,

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |

सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ||

इसका अर्थ है इन्द्रियों के बारे में चिंतन करते समय, मनुष्य उससे लगाव महसूस करने लगता है और लगाव की इसी भावना के कारण इच्छाएं पैदा होती है और उसमे क्रोध उत्पन्न होता है।

कहने का मतलब है केवल मनुष्य ही अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम है, इसलिए अपनी इच्क्षाओं  को ना ही दबाना चाहिए, ना ही इसे अपने ऊपर हावी होने देकर जीवन व मस्तिष्क पर नियंत्रण करने की अनुमति देनी  चाहिए। कई बार मनुष्य की इच्छाएं ऐसी होती है, जिसके कारण उसे नुकसान और तनाव झेलना पड़ता है। पर याद रखे इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए बुरे कार्य हानिकारक है।

काम, क्रोध, लोभ, मत्सर आदि को वैदिक शास्त्रों में मानसिक रोग माना गया है। रामायण में मानसिक रोग को इस प्रकार बताया गया है कि शारीरिक रोग चाहे कैसा भी हो यह हमारा पूरा दिन दुखमय बना देता है। लेकिन हम यह नहीं जानते कि हम लगातार कई मानसिक बिमारियों से पीड़ित होते रहते हैं  और हमें इसका एहसास भी नहीं होता। हम काम, क्रोध, लोभ आदि को मानसिक रोग नहीं मानते इसलिए इससे कष्ट का एहसास नहीं होता और हम उसे ठीक करने का प्रयास नहीं करते। मनोविज्ञान मनुष्य के इन्हीं बीमारियों को जानने और समझने का प्रयास करती है ताकि उसका समाधान ढूंढ कर बीमारी का बेहतर इलाज किया जा सके।

इस श्लोक में, भगवान् श्री कृष्ण ने मन की गति को बेहतर तरीके से समझाया है। वह कहते हैं कि जब मनुष्य किसी चीज के बारे में बार-बार सोचकर उसमें सुख का अनुभव करता है तो उसका मन उस वस्तु या चीज के प्रति लगाव महसूस  करने लगता है। उदाहरण के लिए, किसी कक्षा में कई लड़के और लड़कियां होते हैं, और वे सभी एक- दूसरे के साथ आराम से बातचीत करते हैं। लेकिन उन्ही में अगर कोई लड़का एक लड़की को पसंद करने लगता है और उसी के बारे में सोचने लगता है कि, ‘‘अगर वह मेरी होती तो मुझे बहुत खुशी होती।‘‘ अब बार बार उसका मन इसी बात को दोहराता रहता है। धीरे धीरे उसका मन उससे जुड़ता चला जाता है। वह अपने दोस्तों से कहता है कि वह उसके प्यार में पागल है, और मन पढ़ाई में नहीं लगता है क्योंकि उसका मन बार-बार उस लड़की के पास जाता है। यह सुनकर उसके दोस्त उसका मजाक उड़ाते हैं और कहते है कि कक्षा में सभी उस लड़की से बातचीत करते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी उसका दीवाना नहीं है। उसकी वजह से उसकी नींद और पढ़ाई क्यों खराब हो रही है?

मतलब यह कि वह बार-बार उसके बारे में सोचता है कि उस लड़की में ही उसकी खुशी है, इसलिए उसका मन उससे जुड़ता चला गया। लगाव की भावना से ही इच्छा उत्पन्न होती है। एक बार लगाव की भावना उत्पन्न होने पर यह दो समस्याओं को जन्म देती है – लोभ और क्रोध, जिसके कारण मनुष्य में लालच की भावना पैदा होती है। यदि आप इच्छाओं की पूर्ति करेंगे तो लालच भी बढ़ता जायेगा। इसलिए इच्छाओं की पूर्ति करके इसको कभी खत्म नहीं किया जा सकता।

जैसे किसी को शराब या सिगरेट पीने की इच्छा  है और वह उसकी पूर्ति करता है तो, कुछ दिनों बाद उसे फिर वही इच्छा होती  है। इस प्रकार बार -बार इसकी पूर्ति करते रहने पर उसका मन बार बार इसकी इच्छा करता है और उससे लगाव हो जाता है, क्योंकि बार बार मन इसके बारे में ही सोच रहा है। इस प्रकार किसी चीज के प्रति लगाव इच्छाएं पैदा करती  है और इसकी पूर्ति लालच पैदा करती  है। ‘‘यदि किसी मनुष्य को संसार का सारा धन, ऐश्वर्य और भोग मिल जाएं, तो भी उसकी इच्छाएं खत्म नहीं होती। उसमें लालच बढ़ता जाता है इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसी भावना का त्याग कर देना चाहिए।‘‘

दूसरी तरफ अगर कोई व्यक्ति इच्छा की पूर्ति में कोई बाधा पैदा करता है तो उसमें क्रोध की भावना उत्पन्न होती है। यह क्रोध अपने आप उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उस व्यक्ति के बढ़ते लालच और इच्छाओं के कारण होता है। यह लोभ और क्रोध जैसे रोगों की ओर ले जाता है। इसकी व्याख्या कई प्रकार से की जा सकती है। जैसे धन के बारे में सोचते रहने से मनुष्य का विचारों से भरा मन न तो ध्यान पर केंद्रित कर पाता है और न ही किसी चीज के बारे में ठीक से सोच पाता है। वो हमेशा इस होड़ में होता है कि अधिक से अधिक धन का संचय कैसे करें।

इसे एक क्रम में समझते है; कोई भगवत भक्ति करने वाला व्यक्ति जो मोक्ष और मुक्ति चाहता था एक दिन किसी सेल में आईपॉड खरीदने के बारे में सोचता है और किसी दिन उसके मुताबिक सेल आने पर उसे खरीद लेता है। अब वह उससे काफी अच्छे से जुड़ा हुआ है। हम देख सकते हैं  उसके आइपॉड हासिल करने की भौतिक इच्छा ने उसे स्वधर्म करने से दूर कर दिया और धर्म तथा भक्ति के प्रति उसका संतुलन पहले ही भंग हो चुका है। वह भौतिक दुनिया में लिप्त होता जाता है और भगवत भक्ति से दूर होता जाता है और उसका मोक्ष प्राप्ति या मुक्ति का लक्ष्य एक कदम पीछे रह गया।

अब दूसरा दृश्य  देखते हैं | एक दिन आइपॉड टूट जाता है, फिर वह गुस्से में है कि यह टूट गया और पूरी तरह से अपना संतुलन खो देता है । अपनी पत्नी पर गुस्सा निकालता है जिससे पारिवारिक माहौल बिगड़ता है और वह अपनी पत्नी को पीट देता है। यहां उन्होंने न केवल पूरी तरह से अपना आपा खो दिया है, बल्कि अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी पीड़ा दी है। ऐसे ही लोक-कीर्ति में खोया हुआ व्यक्ति भी दुनिया भर की कीर्ति पाने की लालसा में हमेशा अपना घर, परिवार, व्यापार और दूसरे दूसरों  का दुख-दर्द भूल जाता है |

तो यहाँ संदेश यह है कि कोई भी व्यक्ति निरंतर चिंतन और वस्तुओं के बारे में सोचने से अंततः समभाव से दूर हो जाता है, इसलिए इसे टाला जाना चाहिए, या जितना संभव हो उतना कम किया जाना चाहिए। यह देखना दिलचस्प है कि सारे  घटनाक्रम क्रोध के इर्द-गिर्द है। श्लोकों के अनुसार, क्रोध तब होता है जब किसी की इच्छा बाधित हो जाती है। इसके अलावा, किसी बात को लेकर लगाव जैसे कि किसी की नौकरी या स्थिति आदि के विचार, क्रोध और भ्रम की निरंतर लहरों का कारण बनती है।

स्वामी रामसुख दास जी इसकी व्याख्या करते हुए कहते है कि, विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य को  उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

भगवान का चिन्तन न होने से विषयों का ही चिन्तन होता है। इसका कारण यह है कि जीव के एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार। जब वह परमात्मा का आश्रय छोड़ देता है तब वह संसार का आश्रय लेकर संसार का ही चिंतन करता है, क्योंकि संसार के सिवाय चिन्तन का कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं।

इस तरह चिंतन करते करते मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति, राग या प्रिया पैदा हो जाती है। आसक्ति के चलते मनुष्य उन विषयों का भोग करता है। यह चाहे मानसिक हो या शारीरिक उससे जो सुख होता है उससे वह इसे बार बार करना चाहता है। प्रकृति का नियम है सङ्गात्संजायते कामः – मतलब किसी चीज को लेकर आसक्ति पैदा होने से व्यक्ति चाहता है कि वह भोग या वस्तुएँ उसे मिले।

फिर कामना के अनुकूल पदार्थों के मिलते रहने से और ज्यादा पाने का लोभ हो जाता है और कामनापूर्ति की संभावनाओं के बीच कोई बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध आ जाता है। जैसे प्राचीन काल में और आजकल भी वर्ण, गुण, योग्यता आदि को लेकर अपने में जो अच्छाई का अभिमान रहता है, उसकी वजह से अभिमान में भी अपने आदर सम्मान आदि की कामना रहती है। उस कामना में किसी व्यक्ति के द्वारा बाधा पड़ने पर भी क्रोध पैदा हो जाता है।

कामना रजो गुणी वृत्ति है और मोह तमोगुणी, जबकि क्रोध रजोगुण तथा तमोगुण के बीच की वृत्ति है। कहीं भी किसी भी बात को लेकर क्रोध आता है तो उसके मूल में कहीं न कहीं लगाव अवश्य होता है। जैसे नियमों के विरुद्ध काम करने वाले को देखकर क्रोध आता है तो इसका अर्थ है नीति न्याय या नियमों से हमें लगाव है। अपमान या तिरस्कार करने वाले पर क्रोध आता है तो इसका अर्थ है मान या सत्कार से हमें लगाव है।

क्रोधाद्भवति सम्मोहः क्रोधसे सम्मोह या मूढ़ता छा जाती है। वास्तव में देखा जाए तो काम, क्रोध, लोभ और ममता इन चारों से ही सम्मोह होता है, जैसे काम से पैदा हुए सम्मोह में विवेक शक्ति ढक जाने से मनुष्य न करने लायक कार्य भी कर बैठता है। क्रोध से पैदा हुए सम्मोह में मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनों को भी उलटी सीधी बातें कह बैठता है। लोभ से पैदा हुए सम्मोह में मनुष्य सत्य ,असत्य, धर्म, अधर्म आदि के बारे में नहीं सोचता और कपट करके लोगों को ठग लेता है। तथा ममता से पैदा हुए सम्मोह में समभाव नहीं रहता जिसके चलते पक्षपात पैदा होता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं  क्रोध से पैदा हुए सम्मोह सबसे ज्यादा हानिकारक है क्योंकि काम, लोभ और ममता में तो व्यक्ति के भीतर अपने सुख और स्वार्थ की चाहत रहती है, पर क्रोध में व्यक्ति के भीतर दूसरों को हानि पहुंचाने की प्रवृत्ति रहती है। कहने का मतलब यह है कि जो व्यक्ति प्रभु भक्ति की भावना या चिंतन नहीं करता है उसमें इन्द्रिय विषयों के बार बार सोचने से भौतिक इच्छाएं पैदा होती है।

इन्द्रियों की प्रवृति यह है कि वह किसी कार्य में लगा रहे और यदि वह भगवान की दिव्य प्रेम भक्ति में नहीं लगी रहेंगी तो अवश्य ही भौतिक चीजों में लगना चाहेंगी। इसलिए इस भौतिक जगत में हर एक प्राणी इन्द्रिय- विषयों के अधीन है, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी भी। जिनके बारे में कई प्रसंग हैं, जैसे शिव के ध्यान मग्न होने पर भी जब पार्वती की इच्छा होने पर वे सहमत हो गये, जिसके फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुआ। जब ऐसे उच्च कोटि के देव इन्द्रियों के अधीन थे तो स्वर्ग के अन्य देवताओं और मनुष्यों के विषय में क्या कहा जा सकता है?

इस संसार के  मायाजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है, प्रभु भक्ति में भावना की वृति जागृत करना और और उसका चिंतन करना। अतः जो प्रभु भक्ति नहीं करता है वह कृत्रिम रूप से इन्द्रियों का दमन कर इसे वश में करने में कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, अन्त में असफल होगा ही, क्योंकि विषय सुख का थोड़ा सा विचार भी उसे इन्द्रिय तृप्ति के लिए उत्तेजित कर देगा।

हर किसी  को जीवन के अंत में  मोक्ष और मुक्ति ही चाहिए, इसलिए हर किसी के लिए  मुक्ति का मार्ग भी जानना बेहद जरुरी है | सिर्फ 5 -15 लोगों  को रोटी खिला देने से या थोड़ा  बहुत दान-धर्म कर देने से मोक्ष प्राप्ति नहीं होती |  ऐसा करना बुरा नहीं  है, लेकिन सिर्फ ऐसा हेर  करना अच्छी बात भी नहीं है | हर किसी के लिए अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना  बेहद जरुरी है और यही मार्ग हमें भगवान के चरणों में ले जा सकता है | इन्द्रियों का नियंत्रण करना आसान काम नहीं है, लेकिन भगवद गीता यह कहती है कि निरंतर अभ्यास से इस काम को आसान बनाया जा सकता है | इसलिए आज यह निश्चय करे कि , हम अपने  पवित्र ग्रन्थ भगवद गीता का अध्ययन करेंगे और इस महा-ग्रन्थ में मनुष्य के उत्थान के लिए कही गई बातों का अनुसरण करेंगे |

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