संत रैदास/रविदास

खळ खळ अविरल बहती नदियों में, गंदा पानी कभी नहीं भरता। नाहीं उसमें से कभी दुर्गंध आती है। शायद इसी वजह से गम में या दुखो में डुबा हुआ इंसान, अगर बहती नदी या सागर के किनारे जाकर बैठता है, तो वह अपना दर्द भूल जाता है। कुदरत के पास यही तो खासियत है कि, उसके पास निस्वार्थ भाव से आने वाला हर इंसान उसी की भांती बन जाता है, निस्वार्थ। नदी या सागर यही तो हमें सीख देते हैं, जीवन में कोई भी समस्या आए घबराए मत बस उसके बहने का इंतजार करो, वह दुःख रूपी कचरा अपने आप बह आगे चला जाएगा। फिर से जीवन का निर्मल शुद्ध पानी आपको देखने को मिलेगा। लेकिन इतना धैर्य या राह देखने का जज्बा शायद हर इंसान में नहीं होता। इसी कारण वह आए हुए इस कचरे को ही अपना भाग्य समझ कर निराश होकर थक जाता है यह गम में डूबकर कोई गलत कदम उठा लेता है। यही बात जीवन में दृढ़ करने के लिए ही शायद जीवन में गुरु का होना आवश्यक है। वही तो होते हैं जो हमें जीवन में आने वाले इन दुखों के प्रति देखने का हमारा नजरिया बदलते है। और जीवन में आध्यात्मिक उर्जा संपादित करके प्रभु में हमारा विश्वास और ज्यादा मजबूत बनाते है।

ऐसे ही संत थे आज के उत्तर प्रदेश के वाराणसी के काशी में जन्मे संत रविदास या रैदास। जो की मीराबाई के भी गुरु थे। इस महापुरुष का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन रविवार को सवंत 1482 में हुआ था। लोगों के जीवन में गम और दुखों और समस्याओं की, चौत्र मास की तरह तपती धुप और गर्मी में वे पूर्णिमा के चंद्र की तरह शीतलता और प्रकाश लेनं के लिए ही शायद उनका जन्म हुआ था। उनके रचित दोहे और भजन सुनकर उनके रुहानी वचनों को सुनकर लोग अपने जीवन के सारे गम दुःख भूल जाते और उनकी शरण में आकर बैठ जाते जहां उनकी रूह को एक आध्यात्मिक अहसास की अनुभूति होती और मानो उनकी आत्मा परमात्मा से बात कर सकती थी।

ऐसा अद्भुत चमत्कार और ऐसी मिठास संत रैदास की वाणी में थी। कहते है, जब आप कोई काम बिना किसी को खुश करने से, और केवल और केवल परमात्मा को समर्पित होकर करते है, तब उस वाणी या बाते सीधा सामने वाली की रूह को छू जाती है। केवल भोग विलास या चापलूसी के लिए अपनी वाणी का प्रयोग करने वाले को यह बात पता नहीं चलेगी। भगवान ने जो जिव्हा हमें दी है उसका सदुपयोग कभी उसके लिए भी किया है? या केवल अपने स्वार्थ के लिए ही! अगर सामान्य बंदा भी उसके दिए हुए दस बीस रूपये कहां खर्च होते है इस बात का ध्यान रखता है तो वो ऊपर वाला भी हमारा पिता है। वो भी यह बात जरुर जानना चाहेगा की उसकी दी हुई चीजों का इस्तमाल हम उसके लिए भी कितना करते हैं। वो किसी से ज्यादा अपेक्षा भी नहीं रखता किंतु अगर हम अपनी ऊर्जा का एक या दो पर्सेंट भी उसके लिए काम में लाते हैं तो भी वो खुश हो जाता है। वो तो पिता हैं केवल आप कैसे है इतना भी बेटा प्यार से पास आकर पूछ ले तो भी वह संतुष्ट हो जाता है। लेकिन संत रैदास जैसे लोग तो अपनी एनर्जी का 80 या उससे ज्यादा अपने प्रभु के लिए काम में लाने वाले होते हैं तो उनकी बातें तो रूहानी होंगी ही। जो दिल को छू लेने वाली और सामने वाले बंदे का हृदय परिवर्तन कर दे। शायद इसी वजह से उनके सेवक उनके सतगुरु कहकर बुलाते थे। उनके ऐसे ही नेक कामों और कर्मों की वजह से उस काल में मीराबाई, सिकंदर लोधी, राजा पीपा, राजा नागरमल जैसे लोग उनकी शरण में आए थे, और खुद को बेझिझक उनके अनुयाई कहलाते थे।

वैसे तो संत रैदास का जन्म एक चमार कुटुंब में हुआ था। किस कुल में जन्में यह बात मायने नहीं रखती लेकिन आपके कर्म कैसे है, आपकी करनी कैसी है, यही बात तय करती है कि, आपका वर्तमान और भविष्य कैसा होगा। चमार होने के बावजूद बड़े-बड़े घराने के राजा महाराजा और रानियों उनके यहा सतसंग की बाते सुनने आया करती थी। उनके पिता चमार राहू और करमा भी यही काम करते थे। यह उनका  खानदानी पेशा था। उनके बाप दादा भी मृत पशुओं की चमड़ी से जूते बनाने का काम किया करते थे। लेकिन रैदास और उनकी पत्नी जुते बनाते और गरीबों को बिना कोई मेहताना लिए दे देते थे। उनकी यह उदारता के कारण उनके पिता ने उन दोनों को घर से निकाल दिया। अपने पैतृक काम को बिना झिझक पूरी निष्ठा और इमानदारी से करने वाले रैदास ने बिना किसी बहस किए बगल में ही गंगा नदी के पास अपनी झोपड़ी बनाकर वहां काम करने लगे, और साथ में अपना भक्तिभाव से प्रभु कार्य भी। उनके यहां बहुत से लोग आते और कहते अरे रविदास चलो आज तो बहुत पावन दिवस है आज तो आप गंगा स्नान कर लीजिए हमारे साथ। तब रैदास प्यार से उन्हें कहते आप अपना कार्य पूर्ण कर आइए, मैं अपना काम निबटा लूं मुझे आज ही किसी को जुते बनाकर देने है। वह अपना काम करते हुए भी हर वक्त मन में प्रभु विचारों में मग्न रहते थे। तभी शायद यह कहावत पड़ी है, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। मतलब अगर आपका मन पवित्र है तो चमड़े के पानी भरने के कठौती में गंगा की पवित्रता है। मैले मन से तो गंगा में नहाना भी अपवित्र हो जाता है।

उनकी इसी सोच और विचार के कारण उस काल में वह सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव साहब को वे मिले थे, और उनके विचारों से प्रभावित होकर उनके भजन ग्रंथ साहिब में उनके 41 कविताओं का समावेश किया गया है। जो सिख धर्म के प्रेम बोध में है। संत रैदास ने परमात्मा की सगुन पासना छोड़ निर्गुण स्वरूप पर ध्यान केंद्रित किया था। उनके गुरु संत रामदास थे उनके मुख्य शिष्यों में से एक कबीर और संत रैदास माने जाते थे। यानि सूफी संत कबीर जी के वो धर्म बंधू थे। उनके विचारों का भजन और दोहो का प्रभाव आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और हिमालय के तीर्थ क्षेत्रें में ज्यादा देखने को मिलता है।

संत रैदास का स्वभाव परोपकारी और दयालु होने के कारण बहुत से लोग फायदा भी उठाते थे और इसके चलते ही उनके माता पिता उनसे अप्रसन्न रहा करते थे और अंत में उन्होंने इसी वजह से उनको घर से निकल दिया था। किंतु उन्होंने अपने काम के प्रति और अपनी प्रभु भक्ति निष्ठा से निभाई। शायद इसी कारण गुजरात में चमार जाती के बंधूओं को रोहित कहा जाता है।

संत महापुरुष के जीवन की हर छोटी-छोटी घटनाएं भी, केवल अपने आराध्यदेव को समर्पित होती है, तभी तो भगवान खुद वहां वास करते हैं। समाज के दुखीजनों के  कल्याण हेतु, इस धरा पर रविदास बनकर आए इस संत ने, लोगो में प्रेम और दया की भावना निर्माण करकर प्रभु भक्ति की तरफ लोगों को मोड़ा और अपना जीवन कार्य संतो की सेवा में ही व्यतीत किया। कहा जाता है, उनकी भक्ति से प्रसन्न माँ गंगा साक्षात् उनके कठौती में विराजमान होती थी। और ऐसी ही समाज सेवा करते-करते उन्होंने अपना जीवन 1527 में पूर्ण कर श्री चरणों में समा गए।

-संजय राय

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