संत ज्ञानेश्वर

हमें आयुष्य कितना मिला है, या हम कितने साल जिये यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, किंतु हम जितने भी साल जिए उतने सालों में कितना जिए और कैसे जिए यह महत्वपूर्ण है। कौनसा ऐसा काम करके गए जिनसे आगे हमें लोग याद रखेंगे यह बात ज्यादा मायने रखती है। कहते है अगरबत्ती, धूप, दिया, बाती, फुल इन सबकी आयु बहुत कम है, लेकिन यह सब प्रभु के काम आते है, इसके लिए इनका जीना सार्थक कहलाता है। वैसे ही संत महापुरुष कितने साल जिए यह ज्यादा मायने नहीं रखता है किंतु उन्होंने अपने जीवन में कैसा और काम किया यह बहुत मायने रखता है। अगर इतिहास पर नजर डाली जाए तो शंकराचार्यजी 32 साल की उम्र में ही वैदिक संस्कृति का झंडा गाड गए। सहजानंद स्वामी स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक 40 साल की उमर में ही अपना काम पूरा कर चले गए। महाभारत में भी अभिमन्यु 18 साल की उमर में ही चक्रव्यूह तोड़ने युद्ध में चला गया। स्वामी विवेकानंद जी 36 साल की उमर में भारतीय संस्कृति की विजयी पताका विश्व में लहरा गए। बाजीराव पेशवा 40 साल की उमर में हिंदुत्व की पताका लहरा के चले गए वैसे ही आज के हमारे संत है संत ज्ञानेश्वर जो केवल 21 साल की उमर में ज्ञानेश्वरी जैसा महान ग्रंथ, जो गीता का मराठी अनुवाद है, उसमें 9 हजार अभंग/ओवी जैसे दोहे समाज के सामने रखकर इस दुनिया से चले गए।

इन सभी ने अगर अपने जीवन मे सही उमर, सही समय, सही उपकरण सही साधन मिलने का इंतजार किया होता तो आज दुनिया इन सारी चीजों से वंचित रहती। इन सब ने जो भी मिला उसे हथियार बनाकर दैवीय कार्य करके समाज को जागृत कर सबको प्रभु के सम्मुख लाने का काम किया। भगवान का मुख कहलाने वाले ब्राह्मण जिसके द्वारा भगवान बोलते है इसी कुल में ज्यादातर अवतरण संत महापुरुष का हुआ है। फिर भी खुद को ब्रह्म का माध्यमिक साबित करने के लिए उनको भी बहुत से कठिन रास्तों से गुजरते हुए ऊंचाईयां मिली है।

जैसे की सबको ज्ञात ही है, महाराष्ट्र में इ.स. 1295 में औरंगाबाद के पैठण में गोदावरी नदी के पास आपे गांव में भाद्रपद अष्टमी को संत ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ। उनके पिता विठ्ठल पंत और माता रुक्मिणी बाई थे। पिता विठ्ठल पंत कुलकर्णी बहुत ही धार्मिक और मुमुक्ष थे। किंतु समाज के आधीन उन्होंने रुक्मिणी बाई से विवाह तो कर लिया किन्तु उनके मन में वैराग्य की भावना होने के कारण वह काशी चले गए। जहां उन्होंने अपने गुरु स्वामी रामानंद से ब्रह्मचारी कह के संन्यास ले लिया। लेकिन जब उनके गुरु पैठन में तीर्थयात्र के आए तब उन्हें सच्चाई पता चली। तब उन्होंने वापस उन्हें संसार में जाने को कहा। वापस आने के बाद, बारह साल के गृहस्थी जीवन में उनकी चार संतान हुई। निवृतिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव और मुत्तफ़ाबाई।

लेकिन बच्चों का जब यज्ञोपवीत देने का समय आया तो, संन्यासी की संतान कह के ततकालीन ब्रह्म समाज ने उन्हें पहले ही, समाज से परित्याग कर दिया था। वैसे ही बहोत कष्टों का सामना वो लोग जेल रहे थे किंतु जब विठ्ठल पंत ने इसका उपाय माँगा तो उन्होंने कहा केवल देह दंड ही आखरी प्रायश्चित है इसका। तब दोनों पति पत्नी ने भविष्य में भी उनके बच्चोंको संस्कार से वंचित न रखा जाए इस कारण सदेह जल समाधी ले ली। किंतु उसका फायदा भी इन चारो भाई बहनों को नहीं हुआ। समाज ने उन्हें तिरस्कृत ही किया। अनेक यातनाए दी। अन्न और भोजन के लिए भी तरसाया। अंत में उन्होंने अपना आंणदी गाव छोड़ पैठन में आ गए। यही ज्ञानेश्वर को उनके गुरु मिले जहा उन्होंने अपनी विद्वता सिध्ध कर दी। वैसे तो उनके सबसे पहले गुरु उनके बड़े भैया निवृतिनाथ ही थे। किंतु पैठन आके ज्ञानेश्वर ने संस्कृत गीता को  पंडितो की जनेऊ की कुंची से निकाल प्राकृत भाषा में  लिखकर समाज के जन मानस तक पहोचाई। वैसे गीता पर यह टिका उन्होंने कही लिखी उनके शिष्य सच्चीदानंद बाबा ने।  गीता के 700 श्लोक पर उन्होंने 9 हजार टिका लिखकर सब पढ़ सके और अपने जिवन में ला सके ऐसी पाकृत भाषामे समजाइ। उन्होंने गीता के कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग को सहज बनाके लोगोका जीवन जिवंत बनाया। आज भी मराठी भाषा में ज्ञानेश्वरी का इतना ही जबरदस्त प्रभाव है।

उन्होंने बहुत ही छोटी आयु में बहुत यातनाओं और भीषण संघर्ष के बावजूद लोगों को एक उत्कृष्ट ऐसा जीवन ग्रंथ दिया। इसी कारण वारकरी संप्रदाय और उस समाज के लोग उन्हें प्यार से ‘माउली’ कहकर पुकारते थे। उनके समकालीन संतो में संत नामदेव, गोरा कुंभार का नाम आता है। ज्ञानेश्वर ने एकनाथ महाराज के वारकरी संप्रदाय की नींव मजबूत करने का काम किया था। ज्ञानेश्वरी गीता को मराठी में लाकर, उस माध्यम से ज्ञान, कर्म और भक्ति योग का त्रिवेणी संगम रच लोगों के जीवन में आध्यात्मिक ऊंचाई लाने का प्रयास किया।

उनके जीवन में अमृतानुभव इस ग्रन्थ के माध्यम से जीवन में संयम और निग्रह इन बातों का महत्व भी समझाया है। जो उस काल के सबसे श्रेष्ठ माने जाने वाले ऐसे संत चांगदेव जी का गर्व हर कर उनको समझाते हुए यह सारी बातें उन्होंने कही थी। इस ग्रंथ में 800 ओवी यानि दोहे है। चांगदेव अपना अहंकार दिखाने के लिए सिंह पर बैठ आए थे तो ज्ञानेश्वर ने दीवाल पर बैठ साँप को चाबुक बनाकर उनको मिलने गए। और उनका अहंकार नष्ट किया। उनको उद्देश्य लिखे हुए चांगदेव पासष्टी में 65 दोहे लिखे थे। अद्वेत सिद्धांत का जीवंत दर्शन करता यह ग्रंथ है।

इतना प्रचंड कार्य करके जीवन के केवल 21 साल की उमर में ही उन्हाेंने, अपने गुरु के चले जाने के बाद उनकी समाधी स्थल के पास आणदी में इंद्रायणी नदी के पास जीवंत समाधी ले ली। जो समय था सूर्यास्त, कार्तिक मास की त्रयोदसी और गुरुवार। उनके जाने के एक साल में ही उनके सभी भाई बंधू निवृति नाथ, सोपानदेव और मुत्तफ़ाबाई सभी ने अपनी जीवन यात्र पूर्ण कर इस संसार से विदा ले ली। ऐसे थे हमारे महान संत ज्ञानेश्वर और उनके भाई बंधू।

-संजय राय

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