28. अबुल कलाम आज़ाद -भारतरत्न 1992

28. अबुल कलाम आज़ाद -भारतरत्न 1992

(जन्म 11 नवंबर, 1888, मक्का [अब सउदी अरब में] – मृत्यु 22 फरवरी, 1958, नई दिल्ली )

हूं नर्म दिल कि दोस्त के मानिन्द रो दिया दुश्मन ने भी जो अपनी मुसीबत बयान की ।

आज़ाद यह ख़ुदी का नशेबो फ़राज़ देख

पूछी ज़मीन की, तो कही आसमान की ।

चौदह वर्ष की उम्र में यह शे’र कहने वाले, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 1888 में मक्का में हुआ था। उनके पिता शेख़ ख़ैरुद्दीन एक प्रसिद्ध सूफ़ी विद्वान थे। जब मौलाना आज़ाद दो साल के हुए, तो उनके पिता उन्हें और उनकी बड़ी बहन फ़ातिमा को लेकर कलकत्ता चले आए, जहां उनको मानने वाले हज़ारों लोग थे। मौलाना आज़ाद का असली नाम मुहीउद्दीन अहमद था और आज़ाद उनका उपनाम था । वह शायर भी थे और अच्छे शेर कहते थे ।

आज़ाद जब कलकत्ता आए, तब कलकत्ता के अध्यापकों से शिक्षा प्राप्त करने लगे। 1903 में उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष की थी, तब दर्से निज़ामी (नैतिक शिक्षा का एक पाठ्यक्रम) समाप्त कर चुके थे। हालांकि इस उम्र में अधिकतर विद्यार्थी इस शिक्षा का आधा पाठ्यक्रम भी पूरा नहीं कर पाते। इसके बाद वह स्वयं पढ़ाने लगे

कम उम्र में ही मौलाना को इतनी ख़्याति मिली कि उन्हें देखकर लोगों को विश्वास नहीं होता था कि यही मौलाना आज़ाद हैं। वह शायरी करने लगे और जल्दी ही उसे छोड़ भी दिया। शायरी को छोड़ा, तो पत्रकारिता में चले आए। इसी में आकर उनके वास्तविक गुण उभरे। इसी मंच से अपने लेखों द्वारा उन्होंने भारत के मुसलमानों को सम्बोधित किया और उन्हें सही रास्ता दिखाया। धर्म की भी उचित व्याख्या की।

तेरह वर्ष की उम्र में ही उनके पिता ने उनका निकाह जुलेखा से करवा दिया था। निकाह के समय जुलेखा की उम्र सात-आठ साल थी। उन्होंने उर्दू-फारसी की अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी और थोड़ी बहुत अरबी भी जानती थीं। वह बड़ी सुशील थीं। मौलाना आज़ाद के चहुंमुखी विकास में उनका विशेष योगदान रहा।

मौलाना आज़ाद में कलाकार और पत्रकार की प्रतिभा जन्मजात थी । संगीत में भी उनकी ख़ासी रुचि थी। इसका सबूत उन्होंने सिर्फ़ चौदह वर्ष की आयु में ‘नौरंगे आलम’ जैसे पत्र का सम्पादक बनकर दिया था। इसके बाद ‘लिसानुस सिद्क़’ नामक पत्रिका का भी सम्पादन करने लगे। पन्द्रह वर्ष की आयु में मौलाना के दिल में जो बात थी, उसने राष्ट्रीय एकता एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के लक्ष्य का रूप धारण कर लिया और उस पर वह आखिरी दम तक डटे रहे।

उसी ज़माने में मौलाना आज़ाद ‘अंजुमन हिमायत इस्लाम’ लाहौर के अधिवेशन में सम्मिलित हुए। मौलाना वहीदुद्दीन सलीम पानीपती ने जब उस युवक को देखा और उन्हें मालूम हुआ कि वही ‘लिसानुस सिद्क़’ का सम्पादक है, तो वह चकित रह गए और उसे मौलाना हाली के पास ले गए। वह भी उन्हें देखकर आश्चर्य में डूब गए। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि इतने उच्चस्तरीय लेख इसी नौजवान की क़लम से निकलते हैं।

पिता और भाई के देहान्त के बाद मौलाना आज़ाद पूरी तरह आज़ाद हो गए। यह समय उनकी मानसिक पीड़ा का था। वह ‘अलहिलाल’ नामक पत्रिका से सम्बद्ध हो गए। मौलाना ने इस पत्रिका में मुसलमानों को एक नई तरह की भाषा में सम्बोधित किया। केवल उनके विचार ही नए नहीं थे, बल्कि उनकी  लेखन – शैली भी नई थी। इस युवा लेखक एवं पत्रकार ने मुसलमानों के शिक्षित वर्ग में हलचल मचा दी, क्योंकि उनके लेखों ने रूढ़िवादी विचारों के क़िले पर हमला कर दिया था। इससे बूढ़ों ने नाक-भौं चढ़ाई, पर युवकों के दिलों में एक क्रान्ति जाग उठी।

इसी बीच अरविन्द घोष कलकत्ता आ गए और बंग विभाजन के विरुद्ध लड़ाई का मुख्य केन्द्र बने। मौलाना एक-दो बार उनसे मिले। इससे उनके विचारों में ज़बर्दस्त परिवर्तन आ गया और वह क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार हो गए। दो वर्ष के अन्दर ही मौलाना के प्रयत्नों से उत्तर भारत में गुप्त शाखाएं स्थापित हो गईं। इसके बाद वह इराक़, मिस्र, सीरिया, तुर्की और फ्रांस की यात्रा पर गए। वह ईरानी और तुर्की क्रान्तिकारियों से भी मिले।

‘अलहिलाल’ मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति का घोर विरोधी था। इसका असर यह हुआ कि शिक्षित वर्ग की ओर से भी मुस्लिम लीग की नीतियों का विरोध किया जाने लगा। 1913 में मुस्लिम लीग कांग्रेस के निकट आने लगीं और 1916 में दोनों पार्टियां एक-दूसरे के बहुत निकट आ गईं।

प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तो मौलाना सरकार की नज़रों में खटकने लगे। सरकार उन पर कड़ी नज़र रख रही थी । ‘अलहिलाल’ को प्रेस अधिनियम के अन्तर्गत दबा दिया गया और मौलाना उसे बन्द करने पर मजबूर हो गए, लेकिन वह शान्त कब बैठने वाले थे, तुरन्त ही एक नया पत्र प्रकाशित करने लगे। उन्होंने ‘गुबारे ख़ातिर’, ‘तर्जुमानुल कुरान’ और ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ जैसी विद्वतापूर्ण पुस्तकें लिखीं।

बंगाल सरकार ने 22 मार्च, 1916 को भारत सुरक्षा अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत मौलाना आज़ाद को बंगाल की सीमा से एक सप्ताह के भीतर निकल जाने का आदेश दिया। वह कलकत्ता से रांची चले गए और मौड़ाबादी नामक एक गांव के निकट अकेले रहने लगे।

उनका निर्वासन आदेश वापस लेने के लिए मित्रों और शुभचिन्तकों ने प्रयत्न किए। साठ हज़ार से अधिक हस्ताक्षर करके प्रतिवेदन भेजा गया। इसी बीच लार्ड माइकल ने एक भेंट के दौरान स्वीकार किया कि ग़लतफ़हमी दूर हो गई है। उन्होंने फ़ौरन रिहाई का आश्वासन भी दे दिया, लेकिन यह झूठी तसल्ली थी। फिर भी इस बहाने उन्हें इतना समय मिल गया कि साहित्य, इतिहास और धर्म को लेकर कुछ कर सके।

जनवरी, 1920 में प्रतिबन्ध के आदेश हटा लिये गए। वह पुनः रांची से कलकत्ता पहुंच गए। प्रतिबन्ध के दौरान रौलट एक्ट पास हो गया था। जनरल डायर द्वारा जलियांवाला बाग़ का बर्बर हत्याकांड किया जा चुका था। अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। मुश्किलें समाप्त होने के बाद मौलाना आज़ाद फिर से अपनी गतिविधियों में जुट गए। 1921 में उन्होंने कलकत्ता से ‘पैग़ाम’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला और फिर गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। मौलाना आज़ाद भी गिरफ़्तार कर लिए गए। उन्होंने अदालत के सामने विस्तार से बयान देकर ब्रिटिश न्याय की जमकर खिल्ली उड़ाई। इसी वजह से उनका मुक़दमा जानबूझकर तीन महीने तक लटकाया गया। महात्मा गांधी ने उनके बयान की बड़ी प्रशंसा की।

मौलाना स्पष्ट रूप से मौलाना थे, पर उच्चकोटि के धार्मिक विद्वान होते हुए भी उन्हें पुराने विचारों में आस्था नहीं थी। वह हर तरह से आधुनिक विचारों के व्यक्ति थे। उनका ज्ञान असाधारण था, फिर भी बौद्धिक कार्यों के अतिरिक्त जीवन-भर वह राजनीति में व्यस्त रहे।

मौलाना को अपनी गिरफ़्तारी के बारे में पहले ही मालूम हो गया था, इसलिए उन्होंने महात्मा गांधी के नाम बधाई और देशवासियों के नाम एक सन्देश लिखा था। उन्होंने विशेष रूप से मुसलमानों के लिए यह सन्देश दिया था – मोमिनीन (इस्लाम के सच्चे समर्थको), न तुम निराश हो, न दुखी। अगर सच्चा ईमान अपने अन्दर पैदा कर लो, तो तुम्हीं सब पर छा जाओगे। हमारी सफलता चार सच्चाइयों पर निर्भर करती है और मैं इस समय भी सारे देशवासियों को इन्हीं के लिए आमन्त्रित करता हूं: हिन्दू-मुस्लिम एकता, शान्ति, अनुशासन और बलिदान । मुसलमानों से मैं विशेष रूप से अनुरोध करूंगा कि अपने इस्लामी कर्तव्य को याद रखें और परीक्षा के इस निर्णायक समय में अपने सारे भारतीय भाइयों से आगे निकल जाएं। अगर वे पीछे रहे, तो उनका अस्तित्व विश्व के चालीस करोड़ मुसलमानों के लिए कलंक बन जाएगा। उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने एक साल की सख़्त सज़ा सुना दी।

मौलाना सितम्बर, 1923 में दिल्ली में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अध्यक्ष बने। कांग्रेस के पुराने और अनुभवी नेताओं को छोड़कर एक पैंतीस वर्षीय नवयुवक को इस काम के लिए चुना गया। वास्तव में यह उनकी सूझबूझ और दूरदृष्टि की दाद थी। मौलाना के प्रयत्न से कौंसिलों में प्रवेश के समर्थकों और विरोधियों के बीच बेहतर समझौता हुआ था।

मौलाना अब बार-बार जेल जाने लगे। उनके इस तरह जेल जाने से बेगम जुलैख़ा के मन पर निरन्तर उदासी छाई रहती। मौलाना जब 1942 में बम्बई के ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करने जा रहे थे, तो बेगम जुलैखा के चेहरे पर विचित्र-सा भाव था। उन्होंने मौलाना को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा। जिन दिनों मौलाना अहमदनगर के किले में नज़रबन्द थे, तभी जुलैख़ा बेगम का देहान्त हो गया।

आज़ादी की लड़ाई में ख़िलाफ़त के दिन बड़े स्वर्णिम थे। उन दिनों मुसलमानों ने गोवध बन्द कर दिया था। हिन्दू भी ख़िलाफ़त में उनकी ख़ूब सहायता कर रहे थे, परन्तु अन्त में अंग्रेज़ अपनी भेद-भाव की नीति में सफल हो गए और देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने लगा। एक ओर देश को दंगों की आग से बचाना और दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार के दमन चक्रों का सामना करना कोई आसान काम नहीं था ।

मौलाना अंग्रेज़ों की चाल को अच्छी तरह समझ गए थे। वह जानते थे कि भारत में साम्प्रदायिक समस्या का समाधान तभी हो सकेगा, जब ब्रिटिश सरकार यहां से विदा हो जाएगी।

देश स्वतन्त्र हुआ, तो मौलाना आज़ाद को शिक्षा मन्त्री का कार्यभार सौंपा गया। 1952 में रामपुर से लोकसभा के सदस्य चुने गए और 1957 में गुड़गांव से। मौलाना आज़ाद मानवीयता और शिष्टाचार के बहुत बड़े प्रचारक थे। वह हर हाल में सन्तुष्ट रहते थे। शिक्षा मन्त्रालय उनकी रुचि के अनुसार बिल्कुल सही था। उन्होंने देखा कि अंग्रेज़ों का ज़माना तो गुज़र गया। अब सुधार होना चाहिए। नवयुवकों में अच्छी और स्वस्थ आदतें पैदा होनी चाहिए। इसके बिना शिक्षा अधूरी रह जाएगी।

मौलाना के शिक्षा सम्बन्धी दर्शन का बुनियादी विचार था कि पूर्व और पश्चिम के दृष्टिकोणों में मेल पैदा किया जाए। वह बिना सोचे-समझे किसी बात को पुराना या दकियानूसी कहकर निरस्त नहीं किया करते थे। उन्होंने अपने विचारों की छाप शिक्षा के हर पहलू पर छोड़ी और शिक्षा तथा साहित्य में अनुसन्धान को बढ़ावा दिया। ललित कला की प्रगति के लिए अकादमियां भी बनवाई।

हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी तकनीकी शब्दावली तैयार करने का काम बड़े पैमाने पर शुरू किया गया। शिक्षा के माध्यम की गम्भीर समस्या और हिन्दी -अहिन्दी भाषाओं के झगड़े को बड़ी होशियारी से संभाला और लोगों को अलगाव के ख़तरों से आगाह किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना करके न केवल उच्च शिक्षा की अधिक सुविधाएं प्रदान कीं, बल्कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता की भी रक्षा की। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण ठहराया, क्योंकि इससे राष्ट्र में नया जीवन और नई जाग्रति पैदा हो सकती है।

मौलाना स्वयं एक लेखक और सांस्कृतिक व्यक्ति थे। उन्होंने एक योजना बनाई, जिससे साधनहीन लेखकों, कवियों और कलाकारों को आर्थिक सहायता दी जाने लगी।

हिमालय जैसा अटल स्वभाव, गंगा के पानी जैसा निर्मल दिल, तबीयत की उड़ान आसमान की ओर, बातचीत का ढंग बड़ा विनम्र, सूरत से शानो-शौकत टपकती हुई। इस महापुरुष की यह हलकी-सी तस्वीर है, जिसने अपने  व्याख्यानों को दिल जीतने का साधन बनाया, राजनीति पर सत्य की मुहर लगाई, विद्या और कला जिसको घुट्टी में मिली हुई थी। पत्रकारिता ने जिससे जीवन पाया। साहित्य और इतिहास को जिसने रंग-रूप और ताज़गी दी।

बेशक वह समन्वित राष्ट्रीयता के ध्वजवाहक थे तथा हमारी संस्कृति के में उनका बड़ा योगदान था। 22 फ़रवरी, 1958 को साहित्य, पुनरुद्धार राजनीति, दर्शन, सौजन्य और शराफ़त का यह सम्राट हम सबको छोड़ गया। 22 जनवरी, 1992 में उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च अलंकरण भारतरत्न से विभूषित किया।

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