27. सुभाषचन्द्र बोस -भारतरत्न 1992 (23 जनवरी 1897 – 18 अगस्त 1945

27. सुभाषचन्द्र बोस -भारतरत्न 1992 (23 जनवरी 1897 – 18 अगस्त 1945)

“शूरवीर जहां आगे बढ़ते हैं, वहां समय पड़ने पर उन्हें पीछे भी हटना पड़ता है, अपने सम्मान, गौरव और कर्तव्यनिष्ठा को ध्यान में रखें, अनुशासन में रहें । मैंने सदा कहा है कि घोर अंधेरी रात लहलहाती सुबह होने का संकेत होती है । इस समय हम घोर अंधेरी रातों में से गुज़र रहे हैं। अतः ध्यान रखिए कि सुहानी सुबह के आने में अब अधिक देर नहीं है। विश्वास रखिए, भारत निश्चय ही स्वतन्त्र होगा।” यह कथन था नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारत की आज़ादी के ऐसे सेनानी थे, जिनका नाम भारत के इतिहास में सदा सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा। अंग्रेज़ों से सीधी टक्कर लेने का जो साहस उन्होंने दिखाया, वैसा दुर्लभ ही है। उनके शानदार व्यक्तित्व और दबंग आवाज़ से वह नायक लगते थे। देश की आज़ादी के लिए मर मिटने की ज़बर्दस्त इच्छाशक्ति के लिए उनके विरोधी भी सराहना करते थे।

नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को, कटक में हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ जाने-माने वकील थे। उनकी आरम्भिक शिक्षा यूरोपियन स्कूल में हुई। 1913 में उन्होंने एन्फ्रेंस की परीक्षा पास की। अंग्रेज़ी लिखने में वह बहुत तेज़ थे। उनकी सुन्दर भाषा देखकर एक बार उनके अध्यापक ने कहा था कि इतनी अच्छी भाषा तो मैं भी नहीं लिख सकता। सुभाष की क्रान्तिकारी भावना का परिचय शुरू में ही मिल गया था। प्रेसीडेंसी कॉलेज में वह छात्रों के नेता बन गए थे। किसी बात को लेकर छात्रों तथा अंग्रेज़ अध्यापकों के बीच विवाद हो गया। इस कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया।

बी.ए. पास करने के बाद पिता उन्हें आई.सी.एस. अधिकारी बनाना चाहते थे। सुभाष बाबू के मन में भारत के दीन-हीन लोगों की सेवा करने की ललक थी। वह भला अंग्रेज़ों की चाकरी कैसे करते । पिता की सलाह पर पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए। वहां के परिश्रमी समाज और उनके पारस्परिक सद्व्यवहार को देखकर बेहद प्रसन्न हुए। कुछ बुराइयां भी दिखाई दीं, किन्तु वह तो अच्छाइयों के पारखी थे। उनमें देश-सेवा का बीज इंग्लैंड में ही पड़ गया था। अंग्रेज़ सरकार की नौकरी के लिए उन्होंने साफ तौर पर मना कर दिया और भारत लौटकर दिलो-जान से अपन मिशन में जुट गए।

भारत की जनता में चेतना का वातावरण दिखाई पड़ रहा था। गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चला रखा था। देश में तूफ़ान खड़ा हो गया था । बंगाल इस आन्दोलन से अछूता कैसे रहता । देशबन्धु चितरंजनदास जैसे नेता वहां पहले से ही अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे। सुभाष बाबू पर उन्हीं का प्रभाव पड़ा। बंगाल में भी असहयोग आन्दोलन तेज़ी से चारों तरफ़ फैल गया था। ब्रिटिश सरकार घबराने लगी। प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन का बहिष्कार किया गया। सुभाष बाबू असहयोग आन्दोलन में काफ़ी सक्रिय थे। इसलिए उन्हें गिरफ़्तार कर छह महीनों के कारावास का दंड दिया गया।

जेल से छूटने के बाद कलकत्ता कारपोरेशन के चुनावों में चितरंजनदास को मेयर चुन लिया गया। उन्होंने सुभाष बाबू की लोकप्रियता देखकर उन्हें अधिशासी अधिकारी नियुक्त कर दिया। इस पद पर रहकर उन्होंने सराहनीय कार्य किए। ब्रिटिश सरकार को यह सब सहन नहीं हो रहा था। उन्हीं दिनों किसी बंगाली के हाथों एक अंग्रेज़ मारा गया। इस कांड में सुभाष बाबू अकारण बन्दी बनाए गए। उन पर न तो अभियोग चला, न ही नियत समय के लिए सज़ा दी गई, बल्कि सीधे मांडले जेल भेज दिया। ब्रिटिश सरकार के इस अत्याचार से सभी बौखला गए। जेल में सुभाष बाबू का स्वास्थ्य गिरने लगा। उनकी रीढ़ की हड्डी में बेहद पीड़ा थी। लगभग 20 सेर वज़न भी कम हो गया था। सरकार ने उन्हें इस शर्त पर छोड़ा कि वह सीधे स्विट्ज़रलैंड चले जाएंगे, लेकिन यह शर्त उन्होंने स्वीकार नहीं की। अन्त में सरकार को पड़ा और बिना शर्त रिहा कर दिए गए।

कुछ दिनों बाद उनका स्वास्थ्य सुधर गया। लाहौर अधिवेशन के दौरान कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग रखी गई। अंग्रेज़ इस मांग को स्वीकार नहीं कर सकते थे। सत्याग्रह शुरू हो गया। नमक क़ानून भी तोड़ा गया। सुभाष बाबू के नेतृत्व में इस आन्दोलन ने बंगाल में विकट रूप धारण कर लिया। वह फिर गिरफ़्तार कर लिए गए, किन्तु लार्ड इर्विन ने गांधी जी के साथ एक समझौता कर लिया और सभी नेताओं को जेल से छोड़ दिया गया। सुभाष बाबू भी जेल से बाहर आ गए।

बार-बार जेल-यात्रा से सुभाष बाबू के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा। उनको बुख़ार रहने लगा। आशंका थी कि कहीं टी.बी. न हो गई हो। उनके इलाज का प्रबन्ध किया गया, जो ज़्यादा उपयोगी नहीं रहा । आखिर स्विट्ज़रलैंड में उनका इलाज हुआ। स्वस्थ होने पर उन्होंने यूरोप के कई देशों का दौरा किया। भारत में उनके पिता का स्वास्थ्य अच्छी नहीं था। उधर सरकार उन्हें स्वदेश आने नहीं देना चाहती थी। आखिर किसी तरह वह भारत लौटे और घर पहुंचने के बाद उनके पिता का देहान्त हो गया ।

सुभाष बाबू ने अंग्रेज़ों द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों को तोड़ना शुरू कर दिया। वह भारत वापस लौट आए। यह भी देश वापसी पर लगे प्रतिबन्ध के ख़िलाफ़ था । अतः यहां आते ही सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया। उधर जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बनना चाहते थे, क्योंकि वह लखनऊ में हुए कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन लिए गए थे। सुभाष उन दिनों जेल में बन्द थे, किन्तु उन्हें इस बात का सन्तोष था कि वह भारत में हैं।

जेल में फिर उनके स्वास्थ्य में गिरावट आ गई। सारा देश उनके स्वास्थ्य को लेकर व्याकुल हो उठा। अंग्रेज़ों को इस बार भी बिना शर्त उन्हें छोड़ना पड़ा। स्वास्थ्य लाभ के लिए वह विदेश चले गए। अभी वह विदेश में ही थे कि हरिपुर में संभावित कांग्रेस अधिवेशन के लिए उन्हें अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया और वह भारत लौट आए। उन्हें इक्यावन बैलों द्वारा खींचे जा रहे भव्य वाहन में बैठाकर विशाल जुलूस निकाला गया। चारों ओर सुभाष बाबू की जय के नारे लग रहे थे। अगली बार त्रिपुरा अधिवेशन के भी वही अध्यक्ष मनोनीत किए गए।

सुभाषचन्द्र बोस को ब्रिटिश शासन अपनी आंखों की किरकरी मानता था। उन्हें 1940 में फिर बन्दी बना लिया गया। बाद में उनके गिरते स्वास्थ्य को देख सरकार ने एक बार फिर उन्हें रिहा कर दिया। सरकार ने उनकी गतिविधियों पर कड़ी निगाह रखने के लिए उनके मकान पर पहरा बैठा दिया। सुभाष बाबू किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली थी, ताकि कोई उन्हें पहचान न सके। एक दिन पता चला कि वह अपने कमरे से गायब हैं। वह भेस बदलकर काबुल पहुंच गए। वहां जर्मनी के दूत की सहायता से जर्मनी पहुंचे और हिटलर से मिले। हिटलर उनकी दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सुभाष बाबू को एक वायुयान तथा एक ट्रांसमीटर भेंट में दिया । इसी ट्रांसमीटर पर वह अपने सन्देश भारत में प्रसारित करते थे। ब्रिटिश शासन अवाक रह गया।

नेता जी 1942 में जापान चले गए। वहां उन्होंने सुदूर पूर्व में रहने वाले भारतीयों का संगठन बनाने का प्रयत्न किया और उन लोगों जाग्रति फैलाई। आज़ाद हिन्द लीग की स्थापना पहले ही हो चुकी थी। नेता जी ने उसकी बागडोर संभाल ली। उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज (आई. एन.ए.) का गठन किया और अस्थायी सरकार की स्थापना भी कर डाली । जापान ने भी आई.एन.ए. की काफ़ी सहायता की थी।

इसी बीच युद्ध का पासा पलटने तथा जापान पर अणुबम गिराए जाने से उसकी युद्ध की कार्यवाही डगमगा गई। फलस्वरूप पूरी योजना विफल हो गई। जापान तथा आई.एन.ए. ने हथियार डाल दिए। इसके तीन दिन बाद ही 22 अगस्त, 1945 को समाचार आया कि बैंकाक से टोकियो जाते समय 18 अगस्त को उनका हवाई जहाज़ नष्ट हो गया। दिल दहला देने वाले इस समाचार को सुनकर सारा भारत शोकाकुल हो उठा। आशा थी कि सुभाष बाबू बच गए होंगे, किन्तु ख़बरें इसके उलट ही आ रही थीं।

नेता जी सुभाषचन्द्र बोस भारत के ऐसे महान स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपनी मेहनत से एक विशाल फ़ौज खड़ी करके अंग्रेज़ों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया था कि भारत के लोग इस सीमा तक जाकर भी अपनी आज़ादी की मांग कर सकते हैं। वास्तविकता यह है कि भारत को आज़ादी दिलाने में नेता जी के योगदान को कम करके आंका नहीं जा सकता। भारत में आज भी लोग सुभाषचन्द्र बोस को पूरी श्रद्धा से याद करते हैं।

उनकी अमिट यादों को श्रद्धांजलि देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 22 जनवरी, 1992 को मरणोपरान्त भारतरत्न की उपाधि देकर सम्मानित किया।

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