महर्षि वशिष्ठ

भारतीय संस्कृति की नींव जिनके कर्तुत्व पर टिकी हुई है, ऐसी दिव्य और भव्य हमारे देश की ऋषि परंपरा है। इन अनगिनत हीरे के खजानों में एक से बढ़कर एक ऐसे अनमोल रत्न है। एक हाथ में लो तो लगता है अरे उस पर तो हमारी नजर गई ही नहीं है। क्योंकि ये वो अनमोल हीरे है जो समाज की जागृति की जरूरत पूरी करने के लिए इस धरा पर भगवान पर उपकार करने हेतु आए हैं। जैसे “Low of Attraction”  होता है, वैसे ही ऐसे महापुरुषों के जन्म भी कोई कुदरत के नियमों में सुधारणा करने के हेतु से हुआ होता है।

इस धरा पर मनुष्य के जन्म चार प्रकार से होते हैं – जिसे हम पुनर्जन्म भी कहते है –

* Low of evolution- यानि उत्क्रांति के नियमों से।

* Low of Justice- कर्म के न्याय के अनुसार/कर्मानुसार।

* Low of attraction & repulsion- ऋणानुबंधन के नियमों अनुसार।

* Low of Universal Necessity- अविवेकपूर्ण आवश्यक नियमों के अनुसार।

यह सारे ऋषिगण इस चौथी श्रेणी में आते है। समाज की जो दुर्दशा हो गई है उसे फिर से ठीक करके मानव का जीवन सु-संस्कृत करके उसे सही मायने में भगवान का पुत्र बनाने का काम यह ऋषियों का होता है। और इनके खून-पसीने से जो मानव समुदाय सही मायने में इंसान बनता है तब जाके उनका काम परिपूर्ण होता है। भारत की धरा तो ऐसे अगणित ऋषि समुदायों के धरोहर है जिनके मूल बहुत गहरे है। वो समाज या विश्व की हल्की या बड़ी आंधियो से गिरने या टूट जाए एसी जड़े नहीं होती है। तभी तो भारत पर अगणित संस्कृति के लोगो ने हमले किए किंतु हमारी मूलभूत संरचना हमारे संस्कार, हमारी परंपराएं वो बदल नहीं पाए। जब जब जरूरत पड़ी तब झूक गए, लेट भी गए किंतु बिखर नहीं सके। वापस ऐसे ही कोई संत ऋषि इस धरा पर आकर वो भूली हुई, सोई हुई संस्कृति को वापस उस पर लगी राख को उड़ाकर उस के अंदर छिपी हुई अग्नि को वापस प्रज्जवलित कर गए।

आज ऐसे ही एक महर्षि वशिष्ठ के बारे में जानते है। जिनका स्थान सप्तर्षियों में है। जिनकी पत्नी कश्यप कन्या अरुंधती है, और जो भगवान श्री राम के गुरु बने  थे, वे परम आदरणीय ऐसे महर्षि वशिष्ठ।

उस समय में स्त्रियों के लिए भी शायद अलग से गुणानु पार्जन करने के लिए अलग से पाठशाला हुआ करती थी। इस वजह से अरुंधती को स्त्री के गुण अपने जीवन में संपादित करने के लिए सावित्री की पाठशाला में पढ़ती थी। जहां उसे पढ़ाई के साथ स्त्री के सांसारिक जीवन के सभी पहलुओं के बारे में पढाया जाता था। साथ में स्त्री के गुणों का संवर्धन कैसे करना है वो कला भी सिखाई जाती थी।

महर्षि कश्यप ने जब परशुराम से दान में ली हुई इस धरा को छह हिस्सों में बाट दिया था तब उनमें से एक हिस्सा वशिष्ठ को दिया था। और वशिष्ठ ने उस राज्य को सुनियोजित बना कर उसे इक्ष्वाकु कुल के राजाओं को राज्य चलाने हेतु सौंप दिया था। इस कारण उस समय में राज सत्ता के ऊपर ऋषियों की सत्ता थी। ऋषि यानि कोई ज्योतिष देखने वाला या तारीख बताकर मुहूर्त वाला पंडित नहीं था। उसने अपने बाहू बल और बुद्धि बल दोनों से इस पृथ्वी को जीता था। ऐसे कर्तुत्ववान हमारे ऋषि थे। किंतु आज के समय में किसी स्कूल में फेंसी ड्रेस स्पर्धाओं में ऋषि यानि सफेद लंबी दाढ़ी, सफेद कपडे हाथ में कमंडल लिए खड़ा इंसान यानि ऋषि बन जाता है। लेकिन उस जगह पहुंचने के लिए जो मेहनत जो सिद्धि उन्होंने हासिल की है उसमें से एक पर्सेंट भी हम ला सकते है तो हमारा जीवन धन्य बन जाता है।

वेदों के ज्ञान से युक्त और वेदों की ही बातें और गर्जना करने वाले मित्रवरुण और उर्वसी की संतान यानि सर्व गुण समपन्न ऐसे विशिष्ट थे। जिन्होंने अपने पिता की ऐसी ही वेद गर्जना को आगे बढ़ाया। और स्वयं शाशित समाज बनाया। जहां काम तो सब मिलकर करते है किंतु कोई बोस नहीं, कोई मालिक नहीं, फिर भाई सभी लोग अपनी अपनी जिम्मेदारी समझकर जो भी काम मिले वह करते है। इतना ही नहीं बहुत अच्छी तरीके से करते है और बढ़िया काम करके भी किसी को थेंक्यु की भी आस नहीं। ऐसा बोलना बहुत आसान है किंतु ऐसा समाज निर्माण करना कितना कठिन कार्य है। इसे बनाने में सालो की मेहनत लगी होती है। ऐसा ही राज्य बनाकर उन्होंने इक्ष्वाकु राजाओं को दिया था।

वह काल हमारी चातुर्वर्ण्यं समाज रचना का था। सभी वर्ण्य व्यवस्था में सभी लोग अपना अपना काम स्वयं शिस्त से करते थे यानि मिल्ट्री शासन की तरह। ना सामने पोलिस की जरूरत, ना न्याय के डंडे की। अपना गुन्हा खुद ही कबूल करके खुद ही सजा तय कर लेना। इसलिए तो आज भी समाज में ‘रामराज्य’ की कल्पना सभी करते है। सभी लोगों का जीवन के प्रति देखने का नजरिया ही अलग था। किसी के भी दिल में स्वार्थ वृत्ति नहीं थी, किंतु मैं दुसरों के लिए क्या काम करु यही भावना सदैव रहा करती थी। ऐसा चारि=यवान समाज वशिष्ठ ऋषि ने तैयार किया था। तभी तो विश्वामित्र ऋषि उनसे जलते थे।

वैसे भी वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती सही मायने में उनकी भार्या थी। सह धर्म चारिणी थी। उनके सभी कार्यों में उनका साथ रहता था। ऐसा लोकोत्तर दैवी चरित्र था उनका। वैसी भी कहा जाता है गाड़ी के दोनों पहिए एक जैसे हो तभी गाड़ी सही चल सकती है, एक समान रफ्रतार से बह सकती है और वो दो पहिए है जीवन रथ के पति और पत्नी। आज के समाज में वो भी बड़ी मुश्किल से मिलते है। गत जन्म का पुन्य कर्म हो तब ऐसी पत्नी या पति मिल सकता है किंतु यहा तो सोने में सुगंध जैसा काम था। आज के समय में हम जिन्हें गुंडे कहते है उसे उस समय पर राक्षस कहा करते थे। कोई भी अच्छा काम समाज में होने लगे तो उसमे अड़चने तो आएगी ही। लेकिन अगर दोनों साथ में होतो हर कार्य संभव हो सकता है। शायद इस लिए आअज भी बड़े आदर से यह ऋषि पति पत्नी का नाम लिया जाया है। अगर किसी ऋषि का का जीवन चरितीये कहना है तो उन्होंने क्या काम किया यह अगर हम जान सके तो उनका जीवन हम समज पाएंगे। और यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि है। ऋषि न तो राज आश्रित होता है, ना किसी के आगे हाथ फैलाने वाला। अगर यह होता है तो समज लेना उस समय की समाज व्यवस्था में कुछ गडबडी आई है। और तब भगवान कोई न कोई देवदूत भेज ही देते है।

-संजय राय

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