महर्षि अत्री और सती अनसूया

समाज में हमेशा दो तरह के लोग रहते है, एक भोगवादी, और दूसरा ज्ञानवादी। समाज का ज्यादातर हिस्सा पहले हिस्से में आता है। क्योकि ज्ञान वादी लोग ज्यादातर अहंम वादी, अलगाववादी और अपनी ज्ञान की उत्क्रांति में लगे रहते हुए मिलते है। लेकिन ज्यादातर ऐसे ज्ञानी लोगो की बाते उनके विचार सह्जिकता से सामान्य जन के पल्ले नहीं पड़ते, क्योंकि उनकी बाते हाय लेवल की होती है। जब की भोग वादी लोग अपने ऐशोआराम में ही डूबके उसका उपभोग करने में लगे हुए देखने को मिलते है।  इसा काल हर मन्वंतर में आता है। यह शायद वैवश्वत मन्वंतर का प्रारंभिक कल चल रहा था। प्रजापती अपने ज्ञान से ऐसे ज्ञान पिपासु लोगो की सभा में जिसमें सभी देव ही शामिल थे, ज्ञान सत्र की चर्चा कर रहे थे। अपनी ज्ञान पूर्ण वाणी से वेदो की बाते उपस्थित देव गण में ज्ञान की पिपासा पूर्ण कर रहे थे। लेकिन इस उच्च कोटि की ज्ञान चर्चा में मानो भाव इ कमी रह गई थी। जिसे पूरा करने खुद वाग देवी उस सभा में पधारी। जिनका त्रिलोक्य रूप और लोगों को समझ आए ऐसी भाषा में समझाने का तरीका देख सभा में उपस्थित सभी देव उनकी तरफ आकृष्ट हुए। लेकिन प्रजापती स्थिर होकर इस चर्चा को आगे बढ़ा रहे थे। ऐसे में वो वाग देवी खुद चलके उनके पास आई और उनका साथ माँगा। त्रैलोक्य सुंदरी और ज्ञान से परिपूर्ण ऐसी स्त्री को प्रजापति कैसे मना कर सकते थे। एक सृष्टिकर्ता और दूसरा ज्ञान का भंडार जब दोनों मिले तब उसका फल तो अवश्य ही समाज को अच्छा मिलने वाला था। जिसको विष्णु का अंशावतार, कहा जाता है, ऐसी भव्य और दिव्य साक्षात् मूर्तिमंत कह सके ऐसी उनकी संतान हुई, वह अत्री के नाम से जानी गई। जिसको ऐसे उत्कृष्ट माता-पिता मिले हो उनका कहना ही क्या! विश्वंभर को ही जहां जन्म लेना हो वो तो ऐसी ही गोद का चयन करेंगे। अत्री यानि त्री गुणों से परिपूर्ण। जिनका जीवन भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक सब तरह से उत्कृष्ट है ऐसा जीवन। भगवान जब सब चीजें जीवन में दी है तो उसका सही इस्तेमाल करते उसे जिसने दिया है उसका भावार्थ समझ के उसके काम भी लगाना यही उनका जीवन मंत्र था। हमारे ऋषियों का समाज में कार्य ही ऐसा ही था। अपने सत्कर्म के पथ से भटके हुए जनों को वापस उस रास्ते मोड़ के उसका ध्येय उसे याद दिलाना और प्रभु पथ पर उसे वापस मोड़ना यही सत कार्य समाज के संत और ऋषि मुनिओं का है। हमारे संतो और ऋषियो ने यही कार्य किया है। और इसके समाज के अंतिम छोर तक वो असाधारण होकर भी साधारण बन के गए है, और उनका जीवन उत्कृष्ट बनाने का काम उन्होंने किया है। उन्होंने अत्री कुल तैयार किया और अत्री सूक्त भी बनाया। जिससे उन्होंने रोटी या पैसे के लिए स्तोत्र का गान करने वालोके कण पकड उसको समाज से दूर किया था, इस कार्य को उनका लेफ्ट हेंड कहा जाने वाला शिष्य अर्यनानस ने यह समाज में प्रभावी रूपसे किया \ इतना ही नहीं उसके पुत्र ने तो उससे भी आगे जाके इसे राज मान्यता दिलाने के लिए एक राज कन्या से शादी की ताकि यह विचार समाज में प्रभावी रूप से प्रस्थापित हो सके। यही तो है हमारे समाज की ऋषि परंपराए है वेद और उपनिषद के विचारो को समाज में पुन कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने समाज की नब्ज पकड उसके मुताबिक काम किया और लोगों से करवाया ।

समाज में जब भी ऐसा काम होता है, तब तब समाज के शक्तिशाली और वैभवशाली लोगों को ऐसे लोग जो समाज के लिए काम करते है, वो कांटे की तरह आँख में चुभने लगते है। क्योंकि समाज में फिर ऐसे लोगो की हुकूमत उनके पास नही चलती, तब वे ऐसे सात्विकता पूर्ण कार्य करने वालो के काम में रोड़ा डालने का काम करते है। उस वक्त के कर्दम ऋषि ने देवहुति नामक एक राज कन्या से शादी की थी। कर्दम और देवहुति ने भी समाज के उत्थान के लिए अगणित कार्य किए थे।  उनकी एक पुत्री जो खुद सर्वगुण संपन्न, तेजस्वी और बुद्धिमान ऐसी अनसूया थी । जिसकी शादी कर्दम ऋषि ने अत्री से करवाई। दो महान जिव मिले, जिन्होंने उस वक्त के समाज में लोकोत्तर एसा काम किया। दोनों दिव्य, दोनों तेजस्वी दोनों का उदेश्य एक समाज के लोगों का जीवन सुंदर संस्कारी और कृतज्ञ ऐसा  समाज बनाया था। उस वक्त के समाज में भी राजा और समाज के प्रतिस्थित और साधन संपन्न लोगो में वे खटकने लगे थे। वो उन्हें हर तरह से निचा दिखने के लिए हर तरह के प्रयास करते थे। किसी भाई तरह समाज के लोग उनकी बातो में न आए ऐसा वे लोग तर्कट रचते। लेकिन तत्कालीन समय में अत्री ने  ऐसा समाज निर्माण किया था की, उनके खिलाफ साजिस रचने वाले अमीर और राजा के सामने उन्होंने विद्रोह किया था। बात बोलनी बहोत ही आसान है लेकिन ऐसा कार्य करना और ऐसा समाज बनाना इतना ही कठिन कार्य है। उन्होंने तत्कालीन समाज में लोगो में तेजस्वी जीवन वृत्ति यानि भगवान के पास भी जरूरत न हो तो मांगना नहीं। अपने पुरुषार्थ से अपने बाहुबल से कमाई हुई संपत्ति का ही उपयोग करके उसमे से समाज के उपयोगी कार्य हो ऐसा तेज पुंज समाज उन्होंने निर्माण किया था। मृत्युंजय वृत्ति लोगो में निर्माण की। भगवान के पास भी जाना है तो मांगने के लिए नहीं उसे देने के जाओ ऐसे वीर सपूत उन्होंने निर्माण किए जो भगवान को भी देने के लिए उसके पास आते हो। ऐसे समाज की कल्पना करना ही हमारे लिए सौभाग्य की बात है। और ऐसा समाज जिन्होंने ने बनाया वो वक्त कैसा होगा इस रामायण के एक प्रसंग से पता चल जाती है। जब राम, लक्ष्मण और जानकी वनवास के लिए निकले थे तब अत्री ऋषि के आश्रम में आए थे चित्रकूट पर्वत पर। और अनसूया ने ही सीता को गंदे न होने वाले और चमक कम न होने वाले कपडे और गहने दिए थे जो रावण उन्हें उठा के ले गया तब वो गहने रस्ते में गिराए थे।

जो गलत होने पर राजा को भी फटकार सके ऐसे वो अत्री थे। इस पृथ्वी धरा पर सबसे पहला लोक तंत्र का आगाज करके उसे कार्यान्वित करने वाले वो पहले लोक तांत्रिक युग के प्रवक्ता थे। लेकिन हम तो पाश्चात्य संस्कृति को मानने वाले और उसके रुल को फोलो करने वाले हमारी समझ में कहां आएगी यह सारी बातें। अत्री और अनसूया का जीवन और कार्य इतना लोकोत्तर और दिव्य था की जिनकी परीक्षा करने के लिए खुद तीनों देवों को मानव रूप धारण कर इस धरा पर आना पड़ा। उसकी लोक मानस पर चढ़ी हुई सारी बातें तो हमें पता ही है। लेकिन इन ब्रह्मांड के देवों के आशीर्वाद से अनसूया के घर विष्णु के आशीर्वाद से प्रात स्मरणीय ऐसे दतात्रय, शंकर के आशीर्वाद से दुर्वासा, ब्रह्मा के आशीर्वाद से सोम और आर्य वान और एक ब्रह्म निष्ठ ऐसी अमला नामक पुत्री थी। जैसा अत्री अनसूया का दिव्य और उत्तुंग जीवन था, वैसे ही उनकी इश्वर से इक ही मांग थी केवल कुटुंब को आगे चलाने के लिए पुत्र या पुत्री नहीं चाहिए। किंतु समाज के काम आए और उसकी  में अपना योगदान दे सके ऐसे तेजस्वी संतान उन्हें चाहिए थी और वह पूरी भी हुई। अत्री के मुख्य ग्रंथो में अत्री संहिता और अत्री स्मृति है। जिस ग्रंथो को मनु महाराज ने भी अपने कार्य में कार्यान्वित कर समाज में आगे बढ़ाया था। ऐसा उत्तुंग भव्य और दिव्य ऐसी इस जोड़ी को शतशः प्रणाम।

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