योगक्षेमं वहाम्यहम्य्

मनुष्य जीवन जीते हुए हमें हमेशा ही हमारे योगक्षेम, मतलब की हमारी आवश्यकताओं और आश्रय की चिंता सताती रहती है। यह मनुष्य जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन जब हम भगवद गीता का अध्ययन करेंगे तो ज्ञात होगा कि भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपको किसी भी तरह की कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है, अगर आप प्रभु चिंतन में अनन्य भाव से लगे हुए हैं। अध्याय-9 में श्लोक 11 के भीतर भगवान ने कहा है कि,-

‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम।।’

अर्थात कि जीसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, व अनन्य भाव से चिंतन करते हुए मुझको जो मनुष्य ठीक से पूजते हैं उन सदा भक्ति में लीन मनुष्यों की आवश्यकताओं, सुरक्षा व आश्रय का मैं वहन करता हूँ।’’ कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति पूरे लगन से ईश्वर के दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर उनकी पूजा करते हैं, उनकी जरूरतों को ईश्वर स्वयं पूरा करते हैं और जो कुछ उसके पास है, उसकी रक्षा करते हैं। जो व्यक्ति हर दिन हर पल भगवान की भक्ति में लीन रहता है, एक क्षण भी भगवान की भावना अमृत के बिना नहीं रह सकता उसकी सभी जरूरतें, स्वयं ईश्वर पूरा करते हैं। उन्हें कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं होती। भक्ति में लीन व्यक्ति को भक्ति में सुख का अनुभव होता है और वह चौबीसों घण्टे भगवान का चिंतन करता रहता है। चिंतन मनन की प्रक्रिया किसी भी रूप में हो सकती है जैसे भगवान के बारे में सुनकर, कीर्तन कर के, मन ही मन स्मरण कर के, सेवा भाव से, वन्दना करते हुए, पूजा अर्चना करते हुए, उनके बताए हुए रास्ते पर निरंतर चलने से, उसका कार्य करने से, दास्यभाव से, दोस्त के भाव से तथा आत्मस्वरूप मानकर उनसे निवेदन करते हुए भगवान के चरणों की सेवा में लगे रह सकते हैं। ऐसे मनुष्य के सभी कार्य शुभ होते हैं और व्यक्ति स्वयं आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण होते हैं।

परिपूर्णता के भाव में भक्त को ईश्वर का आत्म-साक्षात्कार होता है और अंत में उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि उन्हें भगवान का सानिध्य प्राप्त हो जाए। सेवा और भक्ति की भावना विकसित होकर व्यक्ति के शरीर में विद्यमान जीवात्मा ईश्वरत्व का रूप धारण कर लेती है और ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान की कृपा से भवसागर पार करते हुए ईश्वर के श्री चरणों में पहुंच जाते हैं। इस प्रकार ईश्वर स्वयं उन्हें अपने आप में समाहित कर लेते हैं। यह योग कहलाता है। ऐसा भक्त भगवान की कृपा से जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है और इस संसार में पुनः नहीं आता। श्लोक में क्षेम का अर्थ है भगवान की कृपा द्वारा संरक्षण प्राप्त करना। भगवान स्वयं योग द्वारा पूर्णतः उनकी भावना में लीन होने में सहायक होते हैं और जब भक्त पूर्ण रूप से कृष्ण भावना अमृत से भर जाता है तो भगवान उसे दुखमय जीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं। लोगों की शिकायत रहती है हमारे पास कुछ नहीं है, ईश्वर ने हमें गरीब बनाया। पर ऐसा नहीं है यदि व्यक्ति को ईश्वर पर भरोसा है और वह यदि आखें बंद करके सोचता है कि उनका दिया हमारे पास क्या है तो पता चलता है सब तो उन्ही का दिया हुआ है। ये हवा, पानी, भोजन, वस्त्र और रहने को आश्रय, इत्यादि। सांसारिक सुख सुविधाओं की बात तो छोड़िए उन्होंने तो इस श्लोक के माध्यम से भवसागर पार करने की बात कही है। पर यदि व्यक्ति भगवद् भक्ति में लीन रहता है तो भगवान, भक्त की सभी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। कहने का तात्पर्य है कि भक्ति में लीन व्यक्ति के सांसारिक सुख की भी जिम्मेदारी वे पूरी करते हैं। इस श्लोक के माध्यम से ईश्वर स्वयं कहते हैं और विश्वास दिलाते हैं कि ईश्वर व्यक्तिगत रूप से अपने भक्तों की जरूरतों को पूरा करेंगे। यह श्लोक भक्तों को पारिभाषित भी करता है, और कहता है जो हमेशा ईश्वर के चिंतन में लीन रहता है, ऐसे भक्त को कोई भय, पीड़ा, दु:ख या किसी चीज की कमी नहीं होती है। यहाँ भक्त का अर्थ है निष्काम भक्त’’ यानि इच्छाहीन भक्त।

निष्काम भक्त का मतलब है वह, जो केवल ईश्वर का सानिध्य चाहता है और जब यह प्राप्त होता है, उसे ही मोक्ष या मुक्ति कहते हैं। कहने का अर्थ है इस श्लोक में भक्त को मोक्ष का मार्ग प्राप्त करने की विधि बताई गई है और उसके प्रयास में ईश्वर प्राप्ति में ईश्वर या श्रीकृष्ण स्वयं सहायक होते हैं। भक्त के ईश्वर के सानिध्य की लालसा व्यक्त नहीं होती, या तो यूँ कहें उसकी मोक्ष की इच्छा किसी अन्य इच्छा के समान नहीं होती है, क्योंकि ईश्वर सानिध्य की लालसा सर्वोपरि है, वह इच्छा अन्य सभी इच्छाओं को स्थायी रूप से समाप्त कर देती है। ईश्वर के सानिध्य की इच्छा अनंत या पूर्णत्व की इच्छा है। पूर्ण रूप से ईश्वर भक्ति में लीन व्यक्ति का लक्ष्य केंद्रित होता है जबकि अन्य भक्तों के अनेक लक्ष्य होते हैं।

इस श्लोक के माध्यम से, श्री कृष्ण कहते हैं कि ईश्वर “योग और क्षेम’’ का ध्यान रखते हैं। भगवद् ज्ञान के अनुसार हमारे पूरे जीवन में दो प्रमुख गतिविधियां हैं अधिग्रहण या, हासिल करना और संरक्षण करना। जो हासिल किया है उसका संरक्षण करना। हम अपने जीवन की गतिविधियों पर नजर डालें तो देखते हैं कि हमारे जीवन का प्रारंभिक भाग ज्ञान, धन, परिवार, पद और उपाधि हासिल करने में समाप्त हो जाता है, जिसे हम अर्जित करना या योग या जोड़ना कह सकते हैं। और हमारे जीवन के बाद का हिस्सा हमने जो हासिल किया है। उसके संरक्षण में समाप्त हो जाता है। यह फ्क्षेम’’ है। ईश्वर भक्त को कहते हैं, भक्ति में लीन व्यक्ति स्वयं में मेरा रूप है, जिससे भक्त के कुशल क्षेम का ख्याल मेरी जिम्मेदारी बनती है। उसके सभी अर्जित कर्मों के संरक्षण की जिम्मेदारी भी मेरी है। इसकी व्याख्या करते हुए एक प्रचलित कहानी के अनुसार कहा गया है कि ‘एक ब्राह्मण था, जिसे इस श्लोक में बहुत आस्था थी, लेकिन एक दिन उसकी आस्था डगमगा गई, क्योंकि उसके परिवार को उस दिन उचित भोजन करने के लिए पर्याप्त भिक्षा नहीं मिली सकी। कर्तव्यनिष्ठ और धर्मपरायण ब्राह्मण का कर्तव्य होता है कि, भिक्षा को व्यापार न बनाया जाए। उन्हें पांच घरों से जो भिक्षा प्राप्त होती है, उसी से अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करना होता है,अन्यथा यदि यह ब्राह्मण के व्यक्तिगत धर्म को नष्ट करने वाला कहलाता है। वह ब्राम्हण भी पूरी निष्ठा से ब्राम्हण धर्मका पालन करता हुआ ईश्वर भक्ति में लीन रहता था, तो उस दिन पर्याप्त भिक्षा नहीं मिलने पर घृणावश, उसने उस ताड़ के पत्ते को फाड़ दिया जिस पर यह श्लोक लिखा था और थोड़ी बहुत मिली भिक्षा रखकर घर से बाहर चला गया। उसके जाने के बाद एक लड़का राशन की बोरी लेकर उनके घर आया। उसने ब्राह्मण की पत्नी को बताया कि, उसके पति ने उसके लिए भोजन की सामग्री भेजी है। ब्राह्मण की पत्नी ने देखा कि लड़के की जीभ से खून बह रहा था। पूछने पर उस लड़के ने कहा कि उसके पति ने ही उसकी जीभ काट दी थी। जब ब्राह्मण वापस आया, तो पत्नी ने उसे भोजन सामग्री देने वाले लड़के को घायल करने के लिए खरी खोटी सुनाई। ब्राह्मण लड़के या राशन के बारे में कुछ नहीं जानता था पर उसने जल्दी ही महसूस किया कि यह ईश्वर ने ही भोजन पहुँचाया है, और जब उसने ताड़ का पत्ता फाड़ा, तो उसने ईष्वरत्व की सत्ता को ठेस पहुंचाई जिसका परिणाम था कि उस लड़के के रूप में ईश्वर को ही घायल पाया। इसलिए ईश्वर ने न केवल भोजन पहुंचाया, बल्कि राशन भी अपनी पीठ पर ढोया। श्लोक में यहाँ “व्हाम्यहम’’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिसका अर्थ है, “मै ही ढोउंगा’’।

इस प्रकार यदि हम स्वयं को ईश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पित कर दें, तो हमें अपनी जरूरतों के बारे में कभी चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है ना ही इसके लिए व्यर्थ समय गंवाना होगा। इसका मतलब है जब तक हम अपने कर्तव्यों को कुशलता पूर्वक ईश्वर की सेवा की भावना से करते हैं, तब हमारी अच्छी तरह से देखभाल की जिम्मेदारी स्वयं ईश्वर की होती है। ईश्वर न केवल हमारी जरूरतों का बोझ उठाते हैं, बल्कि हमारी सारी चिंताओं का ख्याल भी रखते हैं और जरूरत के अनुसार सामान और सुविधाएं जुटाने के लिए परिश्रम भी करते हैं, अर्थात हमारे प्रयास को सफल बनाने में सहायक होते हैं। कहने का तात्पर्य है कि इस श्लोक के माध्यम से ईश्वर भक्ति से प्राप्त गति या परिणति से यह ज्ञान हासिल होता है कि फ्मेरी’’ जरूरतें या फ्आपकी’’ जरूरतें जैसी कोई चीज नहीं है, अगर कुछ है तो सब कुछ ईश्वर ही है। गीता के अध्याय 8वें श्लोक 8 में भी अनन्य भक्ति के बारे में उल्लेख किया गया है-

‘अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमंपुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन।।’

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो व्यक्ति सदैव अपना मन मेरे स्मरण में ही लगाता है व बिना विचलित हुए भगवान के रूप में मेरा ध्यान लगाता है। ऐसे भक्त मुझे अवश्य प्राप्त होते हैं। कृष्ण भक्ति की महिमा के गुणगान में कहा गया है कि परम ब्रम्ह या एक मात्र ईश्वर कृष्ण की भक्ति ही सत्कर्म है, जो बोलने या नाम जप या कीर्तन के माध्यम से किया जाता है। उनकी महिमा के बारे में सुनना भी उतना ही फलदाई है। सबसे बड़ी बात भक्ति भावना के अनुसार ही यह सत्कर्म ही ईश्वर प्राप्ति का द्वार है। इस प्रकार मन, वचन व कर्म से व्यक्ति ईश्वर से जुड़ जाते हैं और इसका अभ्यास करते करते कृष्ण भावना अमृत से सराबोर होकर स्वयं भी ईश्वर के समक्ष हो जाते हैं। इसलिए इसका अभ्यास करते रहना चाहिए। भक्ति भाव में लीन रहने से सांसारिक कार्यों को संपन्न करते हुए भगवान की भक्ति प्राप्त करने में भी बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि सत्कर्मों को करने में स्वयं श्रीकृष्ण सहायक होते हैं। कहा जाता है मन बहुत चंचल है। मन को एकाग्र करना इतना आसान नहीं है पर निरन्तर अभ्यास करते रहने से भगवान का ध्यान व चिंतन आनंद प्रदान करने लगता है। जिस चीज से हमें आनंद की प्राप्ति होती है, जीवात्मा उसकी पुनरावृत्ति चाहता है और व्यक्ति आनंदमय हो जाता है।

जैसे थका-बीमार व्यक्ति, या यूं कहें हमारा शरीर जो अन्नमय कोष है, लम्बी गहरी सांसें लेकर शांति और जीवंत महसूस करता है, ठीक उसी प्रकार जीवात्मा आनंदमय भक्ति भाव की पुनरावृत्ति कर ऊर्जावान महसूस करता है और निरंतर भक्ति भावना उसे इतना ऊर्जावान बना देता है कि वह ईश्वर में लीन होने की क्षमता हासिल कर लेता है। इसलिए कृष्णा भक्ति से व्यक्ति को सांसारिक चीजों से विरक्ति होनी प्रारम्भ हो जाती है व परमात्मा की भक्ति में आनंद आने लगता है। आज के सन्दर्भ में यह काफी अनुकरणीय है क्योंकि भय व अनिश्चितता के इस वातावरण में हमारा मन काफी डरा हुआ हैं और अनजाने भविष्य से भयभीत हैं। इस डर से बचने के लिए भगवान का ध्यान लगाना चाहिए। तन व मन उनके स्मरण व प्रेम में मदमस्त रहने से सभी चिंता एकाग्र बिंदु परम पिता परमेश्वर में ही लीन हो जाती तो हम भय मुक्त हो जाते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि परमात्मा हमारी रक्षा भी करते हैं, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है क्योंकि हमने अपने आपको उन्हें समर्पित कर दिया है। दूसरे अर्थों में कहें तो मृत्यु के समय हम जैसा चिंतन करते हैं हमारा पुनर्जन्म भी ठीक वैसा ही होता है। यहां भगवान अपने लोक या भवसागर के पार की बात कर रहे हैं, जहाँ जाना ही मोक्ष की प्राप्ति है और जन्म मरण से मुक्त होकर जीवात्मा ईश्वर लीन हो जाते हैं। भक्ति में लीन व्यक्ति के लिए यह क्षमता हासिल करना आसान है।

 

मित्रें! अगर इस श्लोक का विवरण हम लोग शांति से सुने और पढ़े तो हम निश्चिन्त हो जायेंगे। हमारे योगक्षेम के लिए, हमारे जीवन-वहन के लिए, हमारे आश्रय के लिए एवं हमारी जरूरतों के लिए। लेकिन उसके लिए हमें प्रभु भक्ति में, उसके कार्य के लिए तत्पर रहना पड़ेगा और उनके बताए हुए रास्ते पर चलना पड़ेगा। कार्य कठिन है, पर करने योग्य है।

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