संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। दृढ़ संकल्पित व्यक्ति, असंभव से लगने वाले कार्यों को भी सहज ही कर गुजरता है। भगवद् गीता के 9वें अध्याय के 31वें श्लोक में कहा गया है-
न मे भक्तः प्रणश्यति।।9-31।।
अर्थात् दृढ़निश्चयी व्यक्ति, कभी नष्ट नहीं होता |
प्रत्येक गुजरते दिन के साथ ही हमारी प्राथमिकताएं भी बदलती जाती हैं। अपनी
प्राथमिकताओं के अनुरूप लक्ष्य प्राप्त करने के लिए भी हम सतत् तैयारियों में लगे रहते हैं। परन्तु इन सबके बावजूद शायद ही ऐसे लोग हों जिन्होंने अपने सभी लक्ष्यों को ससमय प्राप्त कर लिया हो। दरअसल लक्ष्य प्राप्ति की संभावनाएं हमारी तैयारियों की अनुरूप ही, प्रबल और क्षीण होती जाती है। जब हम तैयारी की बात कर रहे हैं तो हमें इस बात पर भी, ध्यान देना हैं कि तैयारी करनी क्या है? किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सही दिशा में
किया गया सटीक प्रयास निश्चय ही सफलता दिलाने वाले होता है, लेकिन हमें हमारे मन के भीतर भी, ध्यान देना जरूरी है। किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले तो हमारे मन और बुद्धि को सब से पहले शांत और एकाग्र करना जरूरी है, इस बात को हमारी श्रीमदभगवद् गीता कहती है। उदाहरण के लिए हम सब पूजा-अर्चना तो करते हैं पर एक बार अपने मन को टटोलकर, पूछना कि क्या हम सही अर्थ में भगवान् की कही हुई बातों को मान रहे हैं?
क्या हम भगवान के बताये हुए रास्ते पर चल रहे हैं? क्या हम अपने मन को शुद्ध कर सके हैं और बुराइयों को बाहर निकाल चुके हैं? अगर इस बात का उत्तर हां में है तो बहुत ही अच्छी बात है मगर यदि उत्तर ना में है तो हमें सब से पहले इस बात पर ध्यान देना जरूरी है।
अक्सर ही लोगों को कहते सुना जाता है कि अरे भाई, हम तो कलयुग में जी रहे हैं और दुनिया भर के बुरे कर्म करते रहते हैं तो हमें ईश्वर प्राप्ति कैसे होगी, अथवा हमारा उद्धार कैसे होगा? लेकिन भगवद् गीता में उसका स्पष्ट वर्णन है कि संकल्प की शक्ति से व्यक्ति, अपने जीवन का उद्धार स्वयं कर सकता है। अपने जीवन को प्रभु में लीन कर देने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने उद्धार का रास्ता स्वयं निर्धारित कर सकता है और उसका कभी भी नहीं होता। श्रीमदभगवद् गीता के 30वें अध्याय में श्लोक 30 और 31 इस बात का
प्रमाण है। श्लोक 30 में भगवान कहते हैं कि,
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।30।।
तात्पर्य यह कि अगर कोई अतिशय बुरे आचरण वाला मनुष्य भी भक्ति पूर्वक ईश्वर का भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। क्योंकि उसने ईश्वर भक्ति में अपना निश्चय दृढ़ कर लिया है। भले ही किसी व्यक्ति ने स्थापित नियमों का उल्लंघन किया हो और वह समाज तथा धर्म के बताये गये मार्ग के नियमों के खिलाफ जाकर, दुराचारी हो गया हो, पर अगर उसने दृढ़
निश्चय होकर भक्ति पूर्वक ईश्वर की स्तुति, पूजा और ईश्वर के बताए मार्ग का अनुसरण करना शुरू कर दिया है तो ऐसा व्यक्ति भगवान् के अनन्य उपासकों में प्रतिष्ठित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को सम्मान के योग्य माना जाना चाहिए। कारण यह है कि उसने अपनी संकल्प शक्ति को दृढ़ कर लिया है और ईश्वर भक्ति और संकल्प शक्ति के बल पर सही दिशा में अग्रसर हो गया है।
पूरे ब्रह्मांड के एकमात्र रचयिता भगवान, सर्वोच्च ब्रह्म, नारायण, सभी गतिमान और अचल प्राणियों के स्वामी हैं। हमारे गुरु, हमारे शिक्षक, इहलौकिक की सर्वाच्च वस्तु, और हमारे मित्र इन सभी को बनाना मुश्किल है पर संकल्प की शक्ति से ही यह संभव हो सका है। ईश्वर की संकल्प शक्ति के प्रभाव से ही ये सभी कुछ निर्मित जान पड़ता है। निस्वार्थ भक्ति एवं पूजा करने वाला व्यक्ति जिसका कोई अन्य उद्देश्य नहीं है, वह ईश्वर के जैसे ही संकल्प करने वाले के सामान है। इसलिए वह पवित्र है और उससे सम्मान पूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए। जब यह संकल्प और निस्वार्थ पूजा किसी व्यक्ति में पाई जाती है तो उसे हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह की उत्कृष्टता की तुलना में उसके द्वारा समाज के स्थापित नियमों का उल्लंघन करना बहुत ही छोटी गलती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि, भगवद भक्ति में इतना प्रबल आवेग है कि वह घोर पापी को भी सुधार सकती है। हमारे अन्य शास्त्रें में भी इसके कई उदारहरण सहज ही मिल जाते हैं, जैसे महर्षि वाल्मीकि, जो पहले रत्नाकर नामक दुर्दांत डाकू थे। पर गुरू के सान्निध्य में आकर वे राम भक्त महर्षि वाल्मीकि हो गए और अलौकिक शक्ति प्राप्त कर रामायण जैसी अनुपम कृति की रचना कर डाली। उनकी कहानियाँ आमतौर पर सभी भारतीय भाषाओं में गाई जाती हैं।
कहा जाता है कि, डाकू रत्नाकर अपने संचित पापों के कारण भटकते हुए इतनी दयनीय स्थिति में पहुंच चुके थे कि वे भगवान राम के नाम के दो अक्षरों फ्रा और म’’ का उच्चारण भी नहीं कर पाते थे क्योंकि उनका पाप उन्हें वह दिव्य नाम लेने से रोक देते थे। इसलिए उनके गुरु ने उन्हें भक्ति मार्ग पर लाने के लिए एक उपाय निकाला और फ्मरा-मराफ् का जप करने का विचार दिया। उनका इरादा यह था कि फ्मरा मरा मरा मरा —’’ की पुनरावृत्ति अपनेआप फ्राम राम राम —’’ की ध्वनि पैदा करेगी। नतीजतन, रत्नाकर जैसी पापी आत्मा भी दृढ़ एवं अनन्य भक्ति की प्रक्रिया द्वारा सप्रार्ग पर लायी गयी और उनके भीतर एक महान ऋषि वाल्मीकि का प्रादुर्भाव हुआ। जिन्होंने रामायण जैसे महान ग्रन्थ की रचना की और समाज को एक ऐसे आदर्श व्यक्तित्व से परिचित कराया जो सदियों से हिन्दू आस्थाओं का प्रतीक बना हुआ है। रामायण में उन्होंने स्वयं इसका उल्लेख किया है कि फ्उलटा नामु जपता जगु जाना, वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।’’ आज पूरा विश्व इस बात का साक्षी है कि डाकू रत्नाकर जैसे पापी व्यक्तित्व ने भी भगवान के नाम के अक्षरों का उल्टे क्रम में जाप करके संतत्व प्राप्त कर संकल्प शक्ति के बल पर वाल्मीकि की दिव्यता हासिल की। इसलिए, पापियों को अनंत समय के लिए दण्डित नहीं किया जा सकता।
श्लोक 30 को 31वें श्लोक में और अधिक स्पष्ट किया गया है,
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छानिंत निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मैं भक्तः प्रणश्यति।।
श्लोकार्थ यह कि निश्चय की शक्ति से भक्ति मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और सदा रहने वाली नित्य शान्ति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन) यथार्थ बात सुन यह मैं दृढ़ता पूर्वक से कहता हूँ कि जिसने मुझ परमात्मा में अपना अन्तःकरण समर्पित कर दिया है वह मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता । अर्थात उसका कभी पतन नहीं होता।
अर्जुन के पूछने पर कि केवल सही संकल्प करने के लिए भक्तों को कैसे पूज्य माना जा सकता है? इसपर भगवान् श्री कृष्ण समझाते हैं कि ईश्वर में अटूट आस्था के साथ अनन्य भक्ति की प्रक्रिया जारी रखने से व्यक्ति का हृदय शुद्ध हो जाएगा और उसके भीतर तेजी से सात्विक और ज्ञानी पुरुषों जैसे गुणों का विकास होगा। परमात्मा सर्वव्यापी है और संसार की उत्पत्ति उनके संकल्प शक्ति से ही संभव हुई है इसलिए वे सभी के लिए पूजनीय हैं।
उनकी न्यायप्रियता, सत्यवादी विचारधारा, दयालुता और हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं। मनुष्य और जीव जंतु, पेड़ पौधे सभी उन्हीं के अंश है इसलिए सभी स्वाभाविक रूप से इन ईश्वरीय गुणों की ओर आकर्षित होते हैं।
व्यक्ति की तामसिक प्रवृति उसे स्वयं को ही भटकाती रहती है और व्यक्ति चाहकर भी गुणी नहीं बन पाता क्योंकि गुणी बनने की प्रक्रिया संकल्प से ही प्रारम्भ होती है। हम बचपन से सुनते आए हैं कि हमें सच बोलना चाहिए, दूसरों की सेवा करनी चाहिए। क्रोध से मुक्त होना चाहिए। फिर भी हम उन उपदेशों को व्यवहार में नहीं ला पाते हैं, क्योंकि हमारा मन अशुद्ध है। उसमें दृढ़ निश्चय का आभाव है।
मन की शुद्धि के बिना चरित्र का निर्माण नहीं होता और संकल्प शक्ति दृढ़ नहीं हो पाती इसलिए व्यक्ति के दोष पूरी तरह से समाप्त नहीं होते। अस्थाई दोष निवारण से कोई लाभ नहीं होता और व्यक्ति पुनः भटकाव की ओर प्रवृत हो जाता है क्योंकि जिस प्रकार जल की धारा गहराई या ढलान की ओर बहती है उसी प्रकार अशुद्ध मन गर्त के तरफ प्रवृत होता है।
जिस प्रकार भवन निर्माण की प्रक्रिया ऊपर की ओर होती है उसी प्रकार चरित्र निर्माण या व्यक्तित्व विकास उर्ध्वमुखी होता है। और सद्गुण ईश्वर भक्ति के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। मन के शुद्ध होने पर ये गुण प्रकट होते हैं और मन की शुद्धि शुद्ध परमात्मा से जुड़े बिना नहीं हो सकती।
श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं तुम दृढ़ता से विश्वास करो कि उनके भक्त कभी नष्ट नहीं होंगे।यहाँ वह अर्जुन से वादा करते हैं कि भक्त के वचन या संकल्प को पूरा किया जाएगा। कभी-कभी भगवान् अपना वचन नहीं निभाने की चूक कर सकते हैं जैसे महाभारत में उन्होंने युद्ध में शस्त्र नहीं उठाने की वचनबद्धता के बावजूद भीष्म पितामह के खिलाफ रथ का पहिया उठाकर अपना वचन भंग किया। भीष्म पितामह का यह वचन कि या तो आज अर्जुन
का वध करेंगे या भगवान् को शस्त्र उठाने पर मजूबूर होना पड़ेगा, को देखते हुए श्री भगवान द्वारा शस्त्र उठाकर अपने वचन को तोड़ कर भी भक्त के वचन की रक्षा की।
इसलिए ईश्वर अपने भक्त के संकल्प को पूरा करने के लिए स्वयं सहायक होते हैं। कहा जाता है यदि कोई व्यक्ति किसी चीज को पूरी शिद्दत से पाना चाहता है तो पूरी सृष्टि उसे मिलाने में सहायक हो जाती है। इसी अध्याय के श्लोक 22 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह व्यक्तिगत रूप से उन लोगों का भार उठाते है जो उन पर निर्भर हैं और उनकी अनन्य भक्ति में लगे हुए हैं। भक्ति में जब परमात्मा का साथ मिलता है तो व्यक्ति का अंर्तद्वन्द समाप्त हो जाता है।
क्योंकि शुरुआत में व्यक्ति खुद को छोटा और आसपास की वस्तुओं और व्यक्तियों को बड़ा महसूस करता है। बड़े और छोटे के विचार से द्वन्द पैदा होता है। भक्ति के फलस्वरूप मन और बुद्धि के लिए आनंदमय, ज्ञानवर्धक, विस्तार और उत्थान और विकास होने से पूरा जीवन खेल मात्र रह जाता है। सभी संघर्ष खत्म हो जाते हैं। एकता, अविभाज्यता, पूर्णता और सर्वोच्चता से पैदा हुई पूर्ण स्वतंत्रता का आभास होता है और ईश्वरीय शक्ति सूक्ष्मता से काम करना शुरू कर देती है। यह आंतरिक सुंदरता, आकर्षण, सद्भाव और एकीकरण की अद्भुत स्थिति है।
इसके विपरीत भक्ति के बिना अज्ञानता और भ्रम के प्रभाव में पूरी विविधता, समझदारी और सर्वोच्च सत्ता को समझने में सहायक होने के बजाय, अचानक एक दुर्दशा के गर्त में डूब जाती है, जहां विवेकहीनता और मानसिक बीमारी और यहां तक कि स्वयं का दृष्टिकोण हानिकारक हो जाते हैं। इतनी भीषण दुर्दशा के बावजूद, हर उस व्यक्ति के लिए उठने की पूरी गुंजाइश है जो खुद को सही करने के लिए फिर से उठ खड़ा होता है। ईश्वर हमेशा उसका सहयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं। व्यक्ति स्वयं ही ईश्वर भक्ति को महत्वहीन समझकर पतन का मार्ग चुनता है।
जब तक हम सांसारिक वस्तुओं की इच्छा रखते हैं, सुख का अनुभव ज्यादा दिनों तक नहीं रहता, क्योंकि कामनाएं बदलती रहती हैं और लालसाएं बढ़ती जाती हैं। लालसाओं की पूर्ति में कठिनाई आने पर दुःख का भी सामना होता है। लेकिन ईश्वर भक्ति के साथ कर्म करने से हमारी बुद्धि विवेक का विकास होता है और कर्तापन तथा भोग की धारणा नष्ट हो जाती है क्योंकि तब हम ईश्वर की एकरूपता के सहयोग से कार्य करते हैं। जब कर्तापन और भोग
विलास की लालसा खत्म हो जाती है। तो इच्छाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। जिसके परिणामस्वरूप चिरस्थायी शांति और आनंद प्राप्त होता है। इस अवस्था में व्यक्ति सुख और दुःख में समभाव का अनुभव करता है और जीवन के वास्तविक आनंद को प्राप्त करता है तथा मृत्यु के पश्चात् जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर ईश्वरीय तत्व में समाहित हो जाता है। अतः कोई व्यक्ति यदि पाप करने की प्रवृत्ति रखता है वह भी भक्त बन सकता है।
श्रीमदभगवद् गीता की अनुकम्पा से वैकुंठ धाम पहुंच सकता है।
श्रीमदभगवद् गीता वास्तविक मायनों में एक ऐसा अदभुत, अनुपम प्रेरक ग्रंथ है जिसके भीतर मनुष्य जन्म की सभी समस्याओं का हल है। व्यक्ति अपने जीवन के मार्ग में कही पर भी भटक जाता है तो भगवद गीता का अध्ययन उसे सप्रार्ग पर लाने वाले पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाता है। यदि कोई व्यक्ति देश-समाज में अपना जीवन निर्वाह करते हुए, अपने भीतर भगवद गीता के आदेशों एवं उपदेशों का ईश्वर द्वारा दिये गए आश्वासनों का पालन करे तो सच्चे अर्थों में, उसका जीवन सफलता का एक उदाहरण बन सकता है।