टीपू सुल्तान

(1750-1799)
अदम्य साहस, युद्ध कौशल और बुद्धिमत्ता के बल पर अंग्रेजों के साथ लोहा लेने वाले मैसूर के महान शासक टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवम्बर 1750 को कर्नाटक के देवनाहल्ली (वर्तमान बैंगलोर) में हुआ था। इनके पिता हैदर अली और माता फातिमा फखरुन्निसां थी। हैदर अली मैसूर साम्राज्य के सैनिक थे परंतु अपनी सैन्य ताकत और चतुराई के बल पर वे 1761 में मैसूर के राजा बने। टीपू ने भी अपने पिता का अनुसरण किया और मैसूर पर बहादुरी के साथ 10 दिसम्बर 1782 से 4 मई 1799 तक शासन किया। टीपू सुल्तान अपने आप को नागरिक सुल्तान भी कहा करते थे। उनका कहना था ‘‘हजारों साल सियार की तरह जीने से अच्छा है कि एक दिन बाघ की तरह जिया जाए।’’ टीपू सुल्तान की तलवार का वजन करीब सात किलो था जो आज भी लंदन के एक संग्र्रहालय में संरक्षित है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि उनके पास राम नाम की एक अंगूठी थी जिसे ब्रिटिश शासक अपने साथ ले गए। टीपू सुल्तान के पास राम नाम की अंगूठी का होना यह दर्शाता है कि वे धर्म सहिष्णु थे। उन्हें बागवानी का भी अत्यधिक शौक था। वे अंग्रेजी अधिकारियों से बीजों और पौधों की नई किस्मों के अनुरोध को लेकर पत्रचार करते थे। उन्होंने बैंगलोर में करीब 40 एकड़ में फैले बॉटनिकल गार्डन की स्थापना भी की थी। टीपू सुल्तान ने बहुत ही कम आयु में घुड़सवारी, तलवारबाजी और निशानेबाजी का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व- श्री ए पी जे अब्दुल कलाम ने तो टीपू सुल्तान को दुनिया के पहले युद्ध रॉकेट का जनक भी कहा था।

टीपू सुल्तान को शेर-ए-मैसूर के नाम से भी जाना जाता है। जब टीपू सुल्तान अपने पिता के फ्रांसीसी मित्र के साथ जंगल में शिकार पर निकले तभी अचानक उनका सामना एक शेर से हुआ। टीपू की बंदूक काम नहीं कर रही थी। ऐसे में जब शेर उनकी छाती पर कूदा तो उनकी बंदूक दूर जा गिरी, लेकिन टीपू ने हिम्मत जुटा कर अपनी बंदूक किसी तरह उठाई और शेर को मार गिराया। इस घटना के बाद टीपू के पिता हैदर अली ने ही उनको शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा। शेर को ही टीपू सुल्तान ने अपने राज्य के प्रतीक के रूप में अपनाया था। टीपू सुल्तान की तलवार पर भी रत्न जड़ित शेर की आकृति बनी हुई थी। उन्होंने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करवाया था। इन्होंने ही भारत की पहली आधुनिक नौसेना की नींव भी रखी थी।

टीपू सुल्तान का असली नाम उनके पिता हैदर अली ने सुल्तान फतेह अली खान शहाब रखा था, परंतु एक संत टीपू मस्तान ऑलिया से प्रभावित होने के कारण लोग उन्हें टीपू बुलाने लगे। धीरे-धीरे इसी नाम से उन्हें जाना जाने लगा। इनका एक नाम बादशाह नसीब अद-दौला मीर पफ़तेह अली बहादुर भी था।

टीपू सुल्तान की शादियों को लेकर भी इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। कुछ इतिहासकार चार शादियां जबकि कुछ इनकी तीन शादियां होने का दावा करते हैं। टीपू सुल्तान का पहला विवाह 24 वर्ष की आयु में 1774 में आरकोट के इमाम साहिब बख्शी की पुत्री नवायत और एक सेनापति लाला मियॉं की पुत्री रुक्कैया बानो से एक ही दिन हुआ। टीपू सुल्तान का आखिरी विवाह 1796 में 46 वर्ष की आयु में खािज़दा जमां बेगम से हुआ जो सैयद साहेब की पुत्री थी।

फ्रांसीसियों से इनके पिता हैदर अली के राजनीतिक संबंध थे। टीपू सुल्तान को फ्रांसीसी अधिकारियों से सैन्य प्रशिक्षण भी मिला था। वे अपने पिता के हर सैन्य अभियान में उनके साथ थे। टीपू ने अंग्रेजों के खिलाफ आक्रामक नीति अपनाई थी। कहा जाता है कि टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ पहला युद्ध 18 वर्ष की आयु में लड़ा था। टीपू सुल्तान ने अपने पिता की कई अधूरी योजनाओं को अमलीजामा पहनाया था – जैसे सड़क निर्माण, पुल, प्रजा के रहने के लिए मकानों एवं बंदरगाहों का निर्माण, आदि। टीपू सुल्तान ने महज 15 वर्ष की आयु में मालावाड़ क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। उस समय उनके पास केवल 2000 सैनिक थे और मालावाड़ की सेना काफी बड़ी थी। इसके बावजूद वे डरे नहीं और दुश्मन सेना को धूल चटा कर विजयी हुए। टीपू सुल्तान ने शासक बनते ही विभिन्न क्षेत्रें को जीतना शुरू किया। पिता की ही तरह टीपू सुल्तान ने भी फ्रांसीसियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के दमन का मार्ग निकाला। उन्होंने अपने राज्य और प्रजा की पूर्ण रूप से रक्षा की। टीपू सुल्तान की नजर शुरू से ही केरल के एक हिस्से त्रवणकोर पर थी। इसलिए टीपू ने वहां के महाराजा के खिलाफ त्रवणकोर पर हमला किया। महाराजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मदद मांगी और सन् 1790 में टीपू सुल्तान पर हमला कर दिया था। यह लड़ाई तकरीबन दो वर्षों तक चली। इसके बाद सन् 1792 में एक संधि हुई जिसके कारण मालावाड़ और मंगलौर को मिलाकर टीपू सुल्तान को कई प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा।

टीपू सुल्तान के जीवन का महत्वपूर्ण युद्ध है एंग्लो-मैसूर युद्ध। पहला एंग्लो-मैसूर युद्ध मैसूर और ग्रेट ब्रिटेन के बीच 1767 से लेकर 1769 की अवधि में लड़ा गया। दूसरा एंग्लो-मैसूर युद्ध 1780 से लेकर 1784 तक चला। इस युद्ध में टीपू सुल्तान ने खूनी संघर्ष के बाद अंग्रेजों को सितम्बर 1780 में पोल्लिलुर में और 1782 में अंग्रेजी सेना को कुम्भकोणम में परास्त किया। तीसरा एंग्लो-मैसूर युद्ध 1790 से 1792 तक लड़ा गया। चौथा और अंतिम एंग्लो-मैसूर युद्ध बहुत कम अवधि के लिए 1799 में लड़ा गया। इस युद्ध में अंग्रेजों ने मैसूर पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया और अंग्रेजों के साथ संघर्ष के दौरान इसी युद्ध में टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपटनम में 4 मई 1799 को मैसूर की रक्षा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

इस प्रकार जन सेवा, नवीन युद्ध पद्धति, कुशल रणनीतिकार और सभी धर्मों के प्रति आदर भाव रखने वाले टीपू सुल्तान ने मरते दम तक अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। टीपू सुल्तान ने कांची समेत अनेक मंदिरों और मठों के निर्माण में सहायता की थी। इस प्रकार एक वीर, सुशासक एवं अदम्य युद्ध कौशल के प्रतीक टीपू सुल्तान को हम शत शत नमन करते हैं। टीपू सुल्तान हमारी यादों में हमेशा जीवित रहेंगे।

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