महाराणा प्रताप

राणा उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के घर, 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ किला, राजस्थान में एक ऐसे पुत्र ने जन्म लिया जिसने अपनी वीरता, संवेदनशीलता, रण कौशल और देशभक्ति के कारण अपना नाम राजस्थान के गौरवपूर्ण इतिहास के पन्नों में दर्ज करवा लिया – वो हैं महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया। नीले रंग के घोड़े पर सवारी करने के कारण इन्हें ‘‘नीले घोड़ेरा असवार’’ भी कहते हैं। महाराणा प्रताप ने बचपन में ही घुड़सवारी एवं युद्ध का प्रशिक्षण लिया। महाराणा, जयमल मेडतिया के शिष्य थे। हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा ने मुगल सेना के मुख्य सेनानी बहलोल खान को उसके घोड़े के साथ दो हिस्सों में काट दिया। सन् 1567 में अकबर की मुगल सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया था। तब प्रताप को गोगुंदा जाना पड़ा।

राणा उदय सिंह ने अपनी सबसे छोटी रानी धीरबाई भटियाणी के पुत्र जगमल को राजा बनाया लेकिन उनके मंत्री इस बात से सहमत नहीं हुए क्योंकि जगमल में राजा बनने के गुण ही नहीं थे। सन् 1572 में उदय सिंह की मृत्यु के बाद सबने मिलकर महाराणा प्रताप को राजा बनाया। इससे नाराज जगमल अकबर की सेना में शामिल हो गया। अकबर की मदद के बदले जहाजपुर की जागीर हासिल करना ही उसका लक्ष्य था।
माहाराणा प्रताप ने कुल 11 शादियां की थीं। इनकी पहली पत्नी का नाम था महारानी अजबदे पंवार। इनसे प्रताप को अमरसिंह और भगवानदास नामक पुत्र प्राप्त हुए। अन्य पत्नियों से भी महाराणा को कई पुत्रें के अलावा एक पुत्री प्राप्त हुई जिसका नाम था चम्पा।
अकबर मुगलों का बेताज बादशाह था। कई राजाओं ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए थे। परंतु मेवाड़ पर कब्जा करना उसके लिए लोहे के चने चबाने से कम न था, क्योंकि यहां पर उसका सामना महाराणा प्रताप से हुआ था। कहते हैं, अकबर ने प्रताप को करीब छह बार संधि प्रस्ताव भेजा लेकिन महाराणा ने हर बार इंकार किया। एक किवदंती के अनुसार अकबर ने मेवाड़ के बदले आधा राज्य देने की पेशकश भी की लेकिन राणा नहीं माने। इसके बाद हल्दी घाटी का एक भीषण युद्ध छिड़ा।

हल्दी घाटी राजस्थान के उदयपुर जिले से मात्र 11 कि-मि- दूर स्थित है। इस युद्ध में अकबर के पास करीब 80 हजार सैनिक थे। अकबर ने टोडरमल, राजा मान सिंह और राजा जय सिंह को अपने पक्ष में कर लिया। इसके अलावा महाराणा का भाई शक्तिसिंह भी उससे मिल गया था। दूसरी ओर, महाराणा ने भीलों की सेना तैयार की और उन्हें प्रशिक्षण दिया। वे अपनी भील सेना के बीच जंगल में ही रहे। वे घास की रोटी खाते थे। भील इनके लिए मर मिटने को तैयार थे। इनकी सेना की संख्या को लेकर भी इतिहासकारों में द्वंद्व रहता है। कहते हैं, महाराणा के पास मात्र 15 हजार सैनिक थे। इन्होंने योजना बनाई कि एक सैनिक पांच सैनिकों को मारेगा। महाराणा ने अफगानी राजा हाकिम खान को अपने साथ मिलाया। राणा ने छापामार युद्ध तकनीक और द्वीकंटक नीति अपना कर युद्ध जीता।

इस युद्ध में चेतक घोड़े ने भी अहम भूमिका निभाई। चेतक को महाराणा अपने पुत्र से बढ़कर प्यार करते थे।
था साथी तेरा घोड़ा चेतक जिसपे तू सवारी करता था।
थी तुझमें ऐसी कोई खास बात जो अकबर तुझसे डरता था।

युद्ध के दौरान जब प्रताप के घोड़े ने छलांग लगाई तो हाथी की सूंड के आगे लगी तलवार से उसकी एक टांग कट गई। फिर भी चेतक ने 28 फीट चौड़ा नाला कूद कर प्रताप को बचाया और दम तोड़ दिया। उसकी मृत्यु पर महाराणा बच्चों के जैसे रोए थे। चेतक की याद में उन्होंने एक उपवन भी बनवाया। इसके बाद शक्तिसिंह ने अपना घोड़ा प्रताप को दे दिया। राणा के हाथी रामदास ने युद्ध के दौरान अकबर के आठ हाथियों को अपनी सूंड के आगे लगी तलवार से काट डाला था। महाराणा के हमशक्ल मानसिंह झाला ने उनका मुकुट पहन अकबर की सेना को भ्रमित किया और महाराणा की जान बचाई।

अकबर ने पुनः 1580 में मेवाड़ पर हमला करने की ठानी। उसने इस बार अबदुल रहीम खान खाना को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया और उसे मेवाड़ जीतने को कहा। इधर महाराणा के सेनापति कुंवर अमर सिंह ने अब्दुल को बर्गलाने के लिए शेरगढ़ के पास आक्रमण किया। उसका ध्यान भटक गया और कुंवर अमर सिंह, खान की बहनों, बेटियों और पत्नियों को उठा लाया। मगर राणा स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे। वे बहुत क्रोधित हुए और उसे उनकी स्त्रियों को सम्मान सहित लौटाने को कहा।

हल्दी घाटी के अलावा 1582 में दिवेर का युद्ध हुआ। इसमें महाराणा प्रताप ने अपने सभी खोए हुए राज्यों को जीत लिया था। कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध का नाम ‘‘मेवाड़ का मैराथन’’ रखा।

महाराणा प्रताप की विजय में उनके राज्य के पूर्व मंत्री और महादानवीर भामाशाह का बहुत बड़ा हाथ था। जब महाराणा के बहुत कम सैनिक और संसाधन बचे थे तो वे निराश होकर सिंध प्रदेश की ओर चल दिए। तभी भामाशाह ने कहा कि आप ही के पूर्वजोें द्वारा दी गई मेरे पास अपार धन सम्पत्ति है आप उसे ले लें। कहते हैं भामाशाह इतना धनवान था कि वह महाराणा के 25 हजार सैनिकों का खर्च 12 वर्षों तक उठा सकता था।

एक बार महाराणा का मनोबल टूट गया और वे अकबर से संधी करने जाने लगे। परंतु अकबर के राज्य में शामिल बीकानेर के राजा पृथ्वी राज राठौर ने उनका मनोबल बढ़ाने के लिए एक पत्र लिखा। तब प्रताप ने संधी का रास्ता बदल दिया।

19 जनवरी 1597 को राजस्थान के एक कस्बे चावंड में महाराणा ने 56 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली। महाराणा की मृत्यु की खबर जब अकबर को मिली तो वे बहुत रोए और कहा कि महाराणा एक पराक्रमी राजा थे। मुझे इस बात का दुःख रहेगा कि मैं उनको कभी हरा नहीं पाया। राणा और उनके घोड़े की याद में आज भी हल्दी घाटी से कुछ ही दूरी पर एक संग्रहालय स्थापित है। महाराणा प्रताप के सम्मान में एक लोक कहावत प्रचलित है -:

माई एडा पूत जन, जैणा राणा प्रताप
इन गौरवमयी पंक्तियों में हर मां से प्रार्थना की गई है कि वह ऐसा पुत्र पैदा करे जो महाराणा प्रताप जैसा वीर शिरोमणि हो।

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