लोभ का अभावः लालच शरीर के रखरखाव के लिए वैध रूप से जरूरत से ज्यादा जमा करने की इच्छा है। इसके प्रभाव में, लोग बड़ी मात्र में धन और संपत्ति अर्जित करते हैं, हालांकि वे जानते हैं कि मृत्यु के समय सब कुछ पीछे छूट जाएगा। इस तरह के लोभ से मुक्ति संतोष और आंतरिक शांति की ओर ले जाती है। असन्तुष्टि का वह भाव लोभ कहलाता है और लोभी पुरुष को कभी शान्ति और सुख प्राप्त नहीं होता। श्री कृष्ण कहते हैं कि नरक के तीन द्वार हैं काम, क्रोध तथा लोभ। आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले ये तीनों विकार हैं। काम, क्रोध व लोभ आत्मा का नाश कर देते हैं। इसलिए इन तीनों दोषों का समूल नाश कर देना चाहिए।
किसी वस्तु का निरन्तर चिन्तन करने से उस वस्तु को पाने की कामना उत्पन्न होती है। यदि इस कामनापूर्ति में कोई बाधा आती है तो उससे क्रोध उत्पन्न होता है। यदि कामना पूर्ण हो जाती है तो मनुष्य का लोभ बढ़ता जाता है और इस प्रकार उसकी शक्ति का ”ास होता जाता है। जो हमारे वर्तमान सन्तुष्टि के भाव को विषाक्त करता है। क्रोध और लोभ के इस क्रिया प्रतिक्रिया रूप संबंध को हम समझ लें तो भगवान् का निष्कर्ष हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए। परिवार में ही किसी की संपत्ति का लोभ व्यवसाय में ही लोभ के चक्कर में कुछ गलत कार्य व यहां तक कि मित्रें से ही लोभ के कारण विवाद इत्यादि कर्म ऐसे हैं जिससे सिर्फ व सिर्फ कष्ट व दुख मिलना है। इसीलिए भगवान कृष्ण ने काम, क्रोध व लोभ को नरक का द्वार कहा है।
नम्रताः दूसरों के साथ मोटे तौर पर व्यवहार करने का स्वभाव उनकी भावनाओं के प्रति असंवेदनशीलता से उत्पन्न होता है। लेकिन जैसे-जैसे कोई आध्यात्मिक कद में बढ़ता है, वह स्वाभाविक रूप से व्यवहार में रूखापन छोड़ देता है। नम्रता आध्यात्मिक शोधन का प्रतीक है। व्यक्तित्व का आभूषण है-नम्रता। नम्रता मानव व्यवहार और प्रकृति की एक विशेषता है। इसे नीति परायणता, विनम्रता और धैर्य के रूप में देखा जाता है जो हमें बताती है कि हमें अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। समुद्र कभी किनारों का अनादर नहीं करता। जबकि उसकी शक्ति उसकी गर्जना हमेशा बताती रहती है।
नम्रता हमारे धर्म ग्रन्थों का एक मूलमंत्र है – जो नम्र होकर झूकते हैं, वही ऊपर उठते हैं। विनम्र होकर ही हम अपने आपको विकसित कर सकते हैं। विनम्रता के द्वारा हम ग्रहण करना सीखते हैं और इसीके कारण हम किसी दूसरे से जुड़ पाते हैं। भारतीय संस्कृति में इसी विनम्रता को व्यक्त करने के लिए प्रणाम व अभिवादन करने की परम्परा है, जैसे बड़ों के समक्ष झुककर आशीर्वाद लेना। यहीं हमें बड़ों के सामने झुकना सिखाती है। जो झुकना जानता है, वह जीतना भी जानता है। झुकना हारना नहीं, अपितु जीत का आरंभ है।
हमारे मन की कोमलता और व्यवहार की नम्रता एक बड़ी शक्ति है क्योंकि विनम्रता और प्रेम से सबके मन को जीता जा सकता है। नम्रता की बदौलत ही एक इंसान दूसरों के साथ मधुर रिश्ते बनाए रख पाता है। जिसके नतीजतन, उसे किसी से डर या खतरा महसूस नहीं होता है बल्कि वह चैन से जिंदगी बसर कर पाता है। उदाहरण – एक नदी के किनारे पर दो पेड़ थे। एक बार नदी उफान पर होती है, और हवाएँ तूफानों में तब्दील हो जाती हैं। उन पेड़ों में से एक पेड़ प्रत्येक हवा के झोंके के साथ झुक जाता है जबकि दूसरा अपने घमंड के वशीभूत होकर सीधा खड़ा रहता है।
जब वातावरण शांत होता है तो झुकने वाला पेड़ ज्यों का त्यों अपनी जगह खड़ा होकर इतरा रहा होता है जबकि घमंडी पेड़ जड़ों से उखड़कर पछता रहा होता है। इसीलिए कहते हैं जो झुकते नहीं वो अक्सर टूट जाते हैं। जो विनम्र होते हैं, वे हर जगह सम्मान पाते हैं। जिस प्रकार नम्रता लिए गीली मिट्टी को कोई भी रूप दिया जा सकता है, उसी प्रकार नम्र स्वभाव वाला व्यक्ति अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढालकर सबका सम्मान पाता है य और सख्त मिट्टी, अक्सर टूटकर बिखर जाया करती है। नम्रता का अर्थ है कि बलवान होते हुए भी खुद को छोटा समझना। इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि स्वयं को हीन समझा जाए। इसका ये अर्थ है कि अनावश्यक बल का प्रदर्शन न कर सदा दूसरों का आदर में नम्र बने रहना।
चंचलता का अभावः हम भले इरादों से शुरुआत करें। लेकिन अगर हम प्रलोभनों और कठिनाइयों से विचलित हो जाते हैं, तो हम यात्र पूरी नहीं कर सकते। सद्गुण के मार्ग पर सफलता मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं के बावजूद अडिग होकर लक्ष्य का पीछा करने से मिलती है। चंचलता हमारे चित्त की प्रकृति है इसलिए इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान है।
मन समस्त ज्ञानेंद्रियों के साथ अलग-अलग व एक साथ रहकर पूरे शरीर का संचालन करता रहता है लेकिन आप अपनी इस जीवन-ऊर्जा का उपयोग वहां कर सकते है, जहां चंचलता नहीं है। जैसे अपने हृदय अथवा नाभि केन्द्र पर ध्यान करके या आती-जाती सांस के साथ संतुलन बनाकर हम शांत रह सकते हैं। जैसे – बाहर कड़ी धूप है, बहुत गर्मी पड़ रही है। हम सूरज को ठंडा तो नहीं कर सकते लेकिन छाया में या घर के भीतर आकर खुद को ठंढक पहुंचा सकते हैं।
अर्जुन बोले हे भगवन, मैं अपने मन को देख पा रहा हूँ कि यह मेरा मन बड़ा चंचल है। मैं तो काफी समय से इसको एकाग्र करने की कोशिश भी कर रहा हूँ, लेकिन यह मन एक स्थान पर ठहर ही नहीं पा रहा है, बार-बार इधर-उधर भागा जा रहा है। जब तक यह चंचल मन शांत नहीं होगा, तब तक मैं समता योग का अनुभव नहीं कर पाउँगा। इसी चंचल मन के कारण एक भाव में रहने वाली नित्य स्थिति को भी नहीं देख पा रहा हूँ। कुछ भी करने के बाद यह मेरा चंचल मन स्थिर ही नहीं हो पा रहा है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा कि वास्तव में मन को वश में किया जाना तो अत्यंत दुष्कर कार्य है, परंतु अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जाना संभव है। महर्षि पतंजलि ने भी कहा है कि अभ्यास और वैराग्य से इस मन को वश में किया जा सकता है। मन ही जीव का बंधन कारक भी है और यही जीव का उद्धारक भी है। मन में अपार शक्तियां निहित हैं। परंतु अविद्या से उत्पन्न अज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण वह इस पार यानी जगत के प्रपंच में, इंद्रियों के आकर्षण और सांसारिक विषयों में पड़ जाता है। वह उस पार यानी जगत से परे परा जगत को नहीं जान पाता।
ऐसा मन जगत में फंसाने वाला, जीव को बंधन में डालने वाला शत्रुवत हो जाता है। मन के अंदर पूर्ण क्षमता है कि वह जगत के उस पार यानी दिव्य जगत के रहस्यों को जानकर ज्ञान से परिपूर्ण हो जाए। तुच्छ विचारों को त्यागकर सद्विचारों को अंगीकार करता हुआ सभी इंद्रियों के विषयों से जब मन शांत हो जाता है, तब यही मन मित्रवत हो जाता है। मन को मित्रवत रखना ही श्रेयष्कर होगा। सत्य को जानने के लिए मन को सदैव सद्विचारों में लगाए रखना चाहिए। रहस्यों को जानने के लिए और ईश्वर की अनुभूति करने के लिए मन रूपी दर्पण के मैल को सदैव साफ करते रहना चाहिए। तभी मन रूपी दर्पण में परमात्मा की झलक दिखाई पड़ने लगेगी और तब मानव मन शांति व आनंद से परिपूर्ण हो सकेगा।
ताकत या शक्तिः मन की पवित्रता से किसी के मूल्यों और विश्वासों के अनुसार कार्य करने के लिए एक गहरी आंतरिक प्रेरणा आती है। इसलिए, संत व्यक्तित्व अपने कार्यों को करने के लिए अपार शक्ति और जोश लाते हैं।
मनुष्य में वो सारी शक्तियां मौजूद है जिस से संसार का विनाश भी हो सकता है और निर्माण भी। मनुष्य के शरीर में इतनी शक्ति है कि वह भूत, भविष्य और वर्तमान को भी देख सकते हैं। प्रकृति के द्वारा प्राप्त मानव के शरीर में जो गुण लक्षण है, वह सभी कार्यों को करने में सक्षम है। इन गुणों और लक्षणों का उपयोग कैसे करे, वह मानव पर निर्भर करता है। शरीर की खुराक भोजन है तो आत्मा की खुराक जप-तप, ध्यान, स्वाध्याय है। पुण्य आत्मा की दृष्टि पड़ते ही पतित व्यक्ति की दरिद्रता दूर हो जाती है। यह दिव्य शक्ति शरीर के गुणों से प्राप्त होती है। मनुष्य के अंदर शक्ति का अक्षय भंडार है। लेकिन अपने से पूरा काम लेना बहुतों को आता ही नहीं।
मनुष्य अपनी शक्ति का पूरा उपयोग नहीं करता, और यह भी सत्य है कि कोई भी मनुष्य जितना समझता है, उसमें कहीं अधिक शक्ति होती है। मनुष्य के अंदर शक्ति का अक्षय भंडार। लेकिन अपने से पूरा काम लेना बहुतों को आता ही नहीं है। रेगिस्तान के उदर में पानी का भंडार भरा पड़ा, लेकिन जमीन में नल डालकर पानी को सतह पर न लाया जाए, तो रेगिस्तान रेगिस्तान ही रहेगा। मनुष्य को कार्य में प्रवृत्त करने वाला बल अपने ध्येय से प्राप्त होता है। यह ध्येय जितना दृढ़, श्रेष्ठ और विशाल होता है, उतना ही अधिक काम मनुष्य से करा सकता है। इच्छा शक्ति मन और शरीर से काम कराती है और जीवन-ध्येय इच्छाशक्ति पैदा करता है। किसी भी कार्य के लिए, साहस के लिए और जीवन के लिए ही प्रेरक बल का होना जरूरी है।
मनोवैज्ञानिक लिण्डवोस्की लिखते हैं कि, जहां ध्येय है, वहां इच्छाशक्ति होती ही है और ध्येय एवं बल स्थायी हो, तो इच्छाशक्ति भी प्रबल एवं स्थायी होती है। किसी भी कार्य की सफलता का मापदंड, उस काम के मूल में स्थित प्रेरक बल है और मनुष्य के व्यक्तित्व का मापदंड उसका जीवन-ध्येय है। फिर अनेक प्रयोग, उदाहरण और आंकड़े उद्धृत करके वह बताता है कि इच्छाशक्ति का आधार अभ्यास नहीं, बल्कि प्रेरक बल होता है।
जीवन-ध्येय से मनोबल, मनोबल से व्यक्तित्व और व्यक्तित्व से जीवन एवं समाज में शुभ परिवर्तन-यह क्रम गांधीजी के जीवन में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। मन में आदर्श प्रकट होने पर जीवन में सहसा कैसा पलटा आता है, इतिहास में इसका दृष्टांत गांधी का जीवन है।
क्षमा या सहनशीलताः यह प्रतिशोध की आवश्यकता महसूस किए बिना, दूसरों के अपराधों को सहन करने की क्षमता है। क्षमा के माध्यम से, व्यक्ति दूसरों के कारण हुए भावनात्मक घावों को ठीक करता है जो अन्यथा मन को विचलित और परेशान कर सकते हैं। क्षमा मांगना और किसी को क्षमा कर देना व्यक्तित्व का सबसे अच्छा गुण है, क्षमा का जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। माफ करने वाले व्यक्ति की तारीफ सभी करते हैं जिसके कारण उसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैल जाती हैं। अगर इंसान कोई गलती करे और उसके लिए माफी मांग ले तो सामने वाले का गुस्सा काफी हद तक दूर हो जाता है।
क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात रहीम हरि को घट्यो जो भृगु मारी लात‘ जैसी पंक्तियां यही संदेश देती हैं कि क्षमा करना बड़ों का दायित्व है। यदि छोटे गलती कर देते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें माफ न किया जाए। वहीं रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि क्षमा वीरों को ही सुहाती है। उन्होंने लिखा है कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो। वह लिखते हैं कि सहनशीलता, क्षमा दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। क्षमा को सभी धर्माे और संप्रदायों में श्रेष्ठ गुण करार दिया गया है। जैन संप्रदाय में इसके लिए एक विशेष दिन का आयोजन किया जाता है।
मनोविज्ञानी भी क्षमा या माफी को मानव व्यवहार का एक अहम हिस्सा मानते हैं। उनका कहना है कि यह इंसान की जिन्दगी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। मनोविज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर एसपी सिंह ने कहा कि क्षमा का मनुष्य के व्यक्तित्व में बहुत महत्व होता है। यदि आदमी गलती कर दे और उसके लिए माफी नहीं मांगे तो इसका मतलब यह हुआ कि उसके व्यक्तित्व में अहम संबंधी विकार है। उनका कहना है कि यदि कोई आदमी माफी मांगने पर भी किसी को माफ न करे तो उसके व्यक्तित्व में भी अहम संबंधी विकार होता है। माफी मांगना और माफ करना दोनों ही इंसानी व्यक्तित्व को परिपूर्ण करने वाले तत्व हैं। सर्वप्रथम हमें अपनी गलतियों पर पर्दा ना डाल कर, खुद से भी और दूसरों से भी क्षमा मांगना चाहिए और दुसरों की छोटी-मोटी गलतियों को नजरंदाज कर अपने सहनशक्ति को विकसित करना चाहिए। जबतक कोई बड़ी बात ना हो, उसपर प्रतिरोध करना गलत भी हो सकता है। याद रहे कि क्षमा निर्बलों का गुण और वीरों का आभूषण है।
क्षमा की महत्ता पर महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा ही शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है वो वह सबकुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है। प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब ने भी कहा है- कुछ इस तरह हमने जिंदगी को आसान कर लिया। किसी से माफी मांग ली किसी को माफ कर दिया। मनुष्य में गुण और दोष दोनों ही होते हैं। बुरी आदतों को आत्म अनुशासन और अभ्यास से दूर कर अच्छी आदतों के साथ जीवन व्यतीत किया जा सकता है। जिस मनुष्य के भीतर क्षमा भाव विकसित हो जाता है, वह व्यक्ति यशस्वी हो जाता है।
गलतियां सभी से होती हैं और बाद में पछताना भी सभी को पड़ता है। अगर हमसे गलतियां होती हैं तो माफी मांगना भी आना चाहिए। और दूसरों की गलतियों को माफ करने का साहस भी होना चाहिए। क्षमा मांगने के लिए व्यक्ति को साहस जुटाना पड़ता है और एक साहसी व्यक्ति ही क्षमा कर सकता है। जब कोई व्यक्ति किसी को माफ कर देता है तो वह बीते समय को तो नहीं बदल सकता है। परन्तु ऐसा करके वह आने वाले कल को सुधार सकता है।
अगर कोई बार-बार गलती करें और अगर आपके क्षमा भाव को कमजोरी समझ ले तो उसे दंडित करना भी आवशयक हो जाता है। खासकर तब जब उसकी गलतियों का परिणाम सिर्फ आपको नहीं, समाज को भी भुगतना पड़ता हो। श्री कृष्ण ने इस प्रश्न का भी निदान कर हमें दिखाया है। उन्होंने शिशुपाल के निन्यानवे गलतियों को क्षमा कर दिया। उन्होंने उसे पूर्व में ही यह सचेत कर दिया था कि अगर सौवीं गलती करोगे तो दंड भुगतना होगा। और सौंवी गलती करते ही उसे दंडित किया गया।
पूजन प्रक्रिया में क्षमा मांगने का नियम है। दैनिक जीवन में जाने अनजाने अनेक गलतियां होती रहती हैं। पूजा में क्षमा प्रार्थना का संदेश यही है कि दैनिक जीवन में हमसे जब भी कोई अपराध हो जाय, तो हमें तुरंत ही क्षमा मांग लेनी चाहिए। बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय में लिखा है ‘दो तरह के मुखर् होते हैं, एक वे जो अपने कृत्यों को अपराध के रूप में नहीं देखते। और दूसरे वे जो दूसरों के अपराध स्वीकार कर लेने पर भी क्षमा नहीं करते’।
बाइबिल में प्रभु ईशु के शब्दों में उल्लेख किया गया है ‘हे पिता इन्हें क्षमा कर देना। क्योंकि इन्हें नहीं पता ये क्या करने जा रहे हैं’। इस्लामिक ग्रन्थ कुरआन शरीफ में उल्लेिखत है ‘जो धैर्य रखे और माफ कर दे य तो यह उसके लिए बहुत हिम्मत का काम है’। गुरु ग्रन्थ साहिब का वचन है क्षमाशील को न ही रोग सताता है और न यमराज डराता है। क्षमा मांगने और क्षमा करने से वास्तव में खुद का ही भला होता है क्योंकि यह एक सकारात्मक पहलू है। क्षमा का भाव मनुष्य के भीतर से अहंकार के भाव को नष्ट कर देता है। किसी ने कितना सुन्दर वर्णन किया है कि ‘क्षमा वो खुशबू है जो एक फूल उन्हीं हाथों में छोड़ जाता है, जिन हाथों ने उसे तोड़ा है’।