गीता आश्वासन – हमारा जीवन संकल्प

(गीता हमारी माँ है, जो हमें सदा अमृत पान कराती है)

भगवद गीता हमें बताती है कि भगवान को कैसा भक्त पसंद है और इसके साथ ही गीता हमें यह भी एहसास करवाती है कि मनुष्य के भीतर कैसे गुण होने चाहिएI भगवद गीता एक ऐसा अमृत-पान है, जिसे हम जैसे-जैसे पीते  जाए, हम जीवन उत्कृष्टता की राह पर, उतना ही आगे बढ़ते जाएंगे I भगवद गीता के हर श्लोक में, हमारे मानव जीवन की शिक्षा के लिए कुछ न कुछ है, लेकिन इतने सारे 700 श्लोक पढ़ना, जानना, समझना, और फिर जीवन में उसे उतारना, यह एक कठिन समस्या है I इसलिए हम ऐसा प्रयत्न है कि, धीरे-धीरे कुछ खास बातों का हम अध्ययन करे और इस गीतामृतम को धीरे-धीरे अपने भीतर समाविष्ट करे, ताकि हमारा जीवन भी धीरे-धीरे दैवी विचारधारा की ओर आगे बढ़े I  भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य जीवन के लिए,जो आश्वासन श्लोक कहे हैं वो हमारे मनुष्य जीवन में आती रोज-रोज की परेशानी को दूर करने में मदद करते हैं I आज हम समाज में देख रहे हैं कि चारों ओर  अनैतिकता और अप्रमाणिकता फैली हुई है, धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले, 25  से 30 % लोगों को यह सब देखकर घृणा आती है और हमेशा परेशान रहता है कि, अगर भगवान है और उसकी बनाई ही यह दुनिया है तो इतने जटिल माहौल  में और इतनी परेशानी के भीतर, वो कुछ करते क्यों नहीं ?…. बात भी सही है, लेकिन भगवान ने खुद इस प्रश्न के उत्तर में अध्याय 4 के श्लोक 7 और 8 में हमें आश्वस्त करते हुए ऐसा कहा है कि,

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

अर्थात“जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं I साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं I”

यहां पर भगवान ने स्पष्ट रूप से ऐसा कहा है कि, जब समाज के भीतर के साधु पुरुषों पर कोई आपत्ति आती है और धर्म की ग्लानी होती है, तब वो प्रकट होते हैं I इसके भीतर दो अर्थ हमारे समझने  के लिए हैं I पहले तो उन्होंने कहा की साधु पुरुषों की रक्षा के लिए, यहां पर साधु का मतलब लम्बी दाढ़ी वाला या भगवे कपड़े वाला साधु बिलकुल नहीं है, साधु का मतलब है सरल वृति वाला, दैवी गुणों को प्रस्थापन करने वाला, प्रमाणिकता, नैतिकता और शुद्ध चारित्र्य से जीवन जीने वाला I ऐसे लोग समाज में तैयार हो और उनके ऊपर कोई मुश्किल आए, तो भगवान जन्म ले सकते हैं, या किसी  न किसी  रूप से हमारे जीवन में आते हैंI और दूसरी बात धर्म की कही है, जिसे आज-कल हम लोग बिलकुल ही गलत तरीके से इस्तेमाल करते हैंI पांच रूपये की माला चढ़ाकर या 10 रूपये का तेल चढ़ाकर या दो गरीबों को सुखी रोटी देकर हम यह मानते हैं कि हम धार्मिक हैI  उनकी बनाई हुई चीजों को हम उसे देते हैं, हम उनको मानते हैं, लेकिन उनका नहीं मानते I उनकी कही हुई बातों को ध्यान में नहीं लेते, सिर्फ उतना ही ध्यान में लेते है जो बात हमारी समझ में आती है और जो बात हमारे लाभ के लिए होती है I इसलिए हमें सबसे पहले तो धर्म की व्याख्या को समझना  पड़ेगा और हमें खुद को साधु पुरुष बनाने में दिलचस्पी रखनी पड़ेगी, तब जाकर अगर हमें कोई मुश्किल है, तो भगवान मदद कर सकते हैंI उसके बाद हमारी जो मुश्किल है वो यह है कि, हमें हमेशा ऐसा लगता है कि, भगवान तो अदृश्य है, मुझे तो कभी दिखे नहीं, तो मै ऐसे कैसे मान लूं कि भगवान ने यह सब कहा हैI  हमारा एक ओर डर यह है कि, अगर हम भगवान के प्रति आगे बढ़ने भी लगे, धर्म और अध्यात्म में डूबने भी लगे, तब भी हमें ऐसा लगता है कि, मेरे इन  कर्मो से भगवान मुझे सजा देगा  या उन कर्मो से मेरा जीवन बर्बाद हो जाएगाI  मतलब कि हम, धर्म के पास आते हुए भी भीती या डर से ही आते हैंI  इसके लिए भगवानने अध्याय 6 के श्लोक 30 और 40 में ऐसा कहा है कि,

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥(6-30)

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥(6-40)

अर्थात, जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप में वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझे वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होताI उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य, दुर्गति को प्राप्त नहीं होता I इन दोनों श्लोक में भगवान ने हमारे डर को दूर कर दिया है और साफ कहा है कि, जो व्यक्ति अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए कर्म करता है, उसे दुर्गति प्राप्त नहीं होती और जो भगवान के बनाए हर प्राणी मात्र में भगवान का अंश देखता है, उसके लिए भगवान कभी अदृश्य नहीं होते, किसी न किसी  रूप में भगवान उसको इस बात का आभास  जरूर करवाते रहते हैं कि, मै तुम्हारे साथ हूँI   आज के 21 वीं सदी के समाज में हर मनुष्य को, मतलब की हम सबके भीतर एक चिंता है, और वो है हमारे पालन-पोषण की, हमारे योगक्षेम कीI   हमें सतत यह डर रहता है कि, मेरे परिवार का क्या होगा, मेरे बीवी-बच्चे का क्या होगा, मेरे माता-पिता का क्या होगा ….. I इसलिए हमारे उस डर के उत्तर में भगवान ने अध्याय 9 के श्लोक 22 में, मनुष्य के अपने योगक्षेम के लिए निश्चित होने की बात कही हैI भगवानने कहा है कि,

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

‘ इसका अर्थ है, “जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मान कर अनन्य-भाव से मेरा ही स्मरण करते हुए कर्तव्य-कर्म द्वारा पूजा करते हैं, जो सदैव निरंतर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताओं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ I” यहाँ पर भगवान हर ऐसे मनुष्य के जीवन के योगक्षेम की जिम्मेदारी लेते हैं , जो अनन्य भाव से और कर्तव्य कर्म के द्वारा उनकी पूजा करते हैंI इसका मतलब यह है कि जीवन में दैवी गुणों को प्रस्थापित करके अविरत अपना कर्म करने वाले किसी भी  मनुष्य को कभी भी अपने योगक्षेम की चिंता नहीं होती I अपना  जीवन जीते हुए हमें हमेशा यह डर सताता है कि, अगर मै पापी हूं, दुराचारी हूं  निम्न जाति में जन्म लेने वाला हूं  तो कैसे मुझे भगवान के चरणों में स्थान मिलेगा ?…. मेरी की हुई भक्ति और मेरे गाए हुए गुण व्यर्थ तो नहीं जाएंगे ?…. आज के कलियुग के समय में जी रहे हर इंसान का  यह प्रश्न है, क्योंकि  हर व्यक्ति कोई न कोई अधोगति से निकलकर ही बाहर आया हैI इसके लिए भगवान ने इसी 9 वें अध्याय के श्लोक, 30, 31, और 32 में इस बात का साफ़ आश्वासन दिया गया है और कहा गया है कि,

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिंनिगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यतिII

 मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युपापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिं II’

इसका अर्थ यह है कि, “यदि कोई भी अत्यन्त दुराचारी मनुष्य अनन्य-भाव से मेरा निरंतर स्मरण करता है, तो उसे  निश्चित रूप से साधु ही समझना चाहिए, क्योंकि वह सम्पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में ही स्थित है। वह शीघ्र ही मन से शुद्ध होकर धर्म का आचरण करता हुआ चिर स्थायी परम शांति को प्राप्त होता है, इसलिए तू निश्चिन्त होकर घोषित कर दे कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता है। हे पृथापुत्र! स्त्री, वैश्य, शूद्र अन्य किसी भी निम्न-योनि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य हों, वह भी मेरी शरण-ग्रहण करके मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं ।“ यहाँ पर साफ़ निर्देश है कि, मै कैसा भी हूं, अगर मै अपने-आप को भगवान के चरणों में समर्पित करता हूं  और शुद्ध  मन से मेरे धर्म का आचरण करता हूं, भगवान जरुर मुझे शांति प्रदान करेंगे I और भगवान ने अपने भक्तों  के लिए भी कह दिया कि, उसका भक्त कभी नष्ट नहीं होता, तो फिर हमें फिक्र करने की कोई बात ही नहीं, बस हमें तो धर्म के बताए हुए रास्ते पर अविरत चलना है और हमारा नैतिक कर्म किए जाना है, बाकि की बातों को भगवान संभाल  लेंगे I इससे आगे चलते है तो अब बारी है भगवान के अस्तित्व की, उसके अंश की, उसकी मौजूदगी की, जो हमेशा हर व्यक्ति की समझ से बाहर  होता है I भगवान ने  अध्याय 15 में श्लोक 7 और 15 में उनके अस्तित्व का निर्देश प्रदर्शित किया है और कहा है कि,

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षतिII (15-7)

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।                               वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ৷৷(15-15)

अर्थात, “संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है। मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूं, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूं, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूं I यहां  पर एक बात तो यह सुनुश्चित है कि, भगवान हर मनुष्य में हर प्राणी में हर जीव में उपलब्ध है, सबका जीवन वो ही चलाते हैं, और सबको शक्ति दान, स्मृतिदान और शांति दान वो ही देते हैंI अगर पूरी गीता में से इस एक श्लोक को व्यक्ति समझकर  जीवन में उतार ले, तो सारी समस्याएं खत्म हो जाएगी I क्योंकि  जब हमें पता है कि भगवान मेरे भीतर है, तो यह  बात भी स्पष्ट है कि भगवान दूसरों के भीतर भी है, ऐसी स्थिति में, अगर हम  किसी और का नुकसान  करते हैं या किसी का हक़ छीनते हैं तो हम भगवान का नुकसान करते हैंI इस श्लोक से आज के कलियुग की ज्यादातर समस्याओं  का निवारण हो सकता है Iभगवद गीता की बात करते ही रहे तो कभी खत्म नहीं होने वाला यह अमृत है, लेकिन  हमारी तो एक सीमा भी है I गीता में अनेक श्लोक में भगवान ने कई प्रकार के आश्वासन दिए है, जिससे प्रतीत होता है कि , हमें डरने की कोई आवश्यकता  नहीं है, कर्म करते रहेंगे और भगवान का कार्य करते रहेंगे तो जीवन में कभी मुश्किल  नहीं आएगी  I लेकिन यहां  पर प्रश्न यह है कि भगवान का कार्य मतलब क्या है ?…. मुझे भगवान के लिए क्या काम करना है ?…. तो जैसे हमने 12 वें अध्याय में देखा था वैसे भगवान के प्रिय होने के लिए आवश्यक गुणों को प्रस्थापित करना है और 17 वें अध्याय के  अंतिम भाग में भगवान ने कहा है कि, “मेरा यह ‘गीता’ रूपी अमृत जो व्यक्ति घर घर कहेगा, दूसरों  को सुनाएगा और खुद अध्ययन करेगा वो मुझे सबसे प्रिय है, मतलब की वो मेरा काम है, जो तुझे  करना है I” और यह बात, अध्याय18 में श्लोक 68 , 69 और 70 में यह बात भगवान ने साफ़ रूप से कही है,

 य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

 भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥

 न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।

 भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥

 अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।

 ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥

‘ लेकिन हमारी तकलीफ तो यह है कि देश के आधे से ज्यादा घरों में तो भगवद गीता उपलब्ध ही नहीं, हम तो यह जानते है कि गीता तो किसी के मरने के बाद कहने-सुनने के लिए है या तो कोर्ट में सौगंध लेने के लिए हैI इसलिए सबसे पहले हर किसी को गीता को अपने घर में रखना होगा, उसके बाद उसका अध्ययन करना होगा, उसके शब्दों को समझना  होगा और अपने जीवन में उसे प्रस्थापित करना होगा, तब जाकर भगवान का अमृत हम पी सकते हैं  और अपना जीवन श्रेष्ठ बना सकते हैंI

 

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