देश में मानवता की मूर्ति : मदर टेरेसा

‘द ऑर्डर ऑफ द मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की संस्थापक मदर टेरेसा को 20वीं शताब्दी के सबसे महान मानवता वादियों में से एक माना जाता है। यही वजह है कि टेरेसा को 2016 में कलकत्ता में महान संत के रूप में ख्याति प्राप्त हुई। कलकत्ता के सेंट टेरेसा के रूप में कैथोलिक चर्च में जानी जाने वाली नन मदर टेरेसा ने अपना जीवन बीमारों और ग़रीबों की देखभाल के लिए समर्पित कर दिया। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को मेसेडोनिया की राजधानी स्कोप्जे शहर में हुआ। ‘एग्नेस गोंझा बोयाजिजू’ के नाम से एक अल्बेनियाई परिवार में उनका लालन-पालन हुआ। उनके पिता का नाम निकोला बोयाजू और माता का नाम द्राना बोयाजू था। टेरेसा का असली सफर भारत में शुरु हुआ। मदर टेरेसा आयरलैंड से 6 जनवरी 1929 को कोलकाता में ‘लोरेटो कॉन्वेंट’ पंहुचीं। यहां से वे बिहार के पटना होली फैमिली हॉस्पिटल से नर्सिंग ट्रेनिंग पूरी की। ट्रेनिंग पूरी करने के बाद वह वापस कोलकाता आ गईं।

भारत आने पर, उन्होंने एक शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। हालाँकि, कलकत्ता की व्याप्त गरीबी ने उनपर गहरी छाप छोड़ी। यही कारण था उन्होंने 1948 में उन्होंने वहां के बच्चों को पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला और बाद में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की जिसे 7 अक्टूबर 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी। इस मिशन का प्राथमिक उद्देश्य लोगों की देखभाल करना था, जिन्हें देखने के लिए कोई और तैयार नहीं था। मदर टेरेसा ने महसूस किया कि दूसरों की सेवा करना यीशु मसीह की शिक्षाओं का एक बुनियादी सिद्धांत था। टेरेसा के उपदेशों में अक्सर यीशु की इन्ही बातों का उल्लेख मिलता है।

1952 में, उन्होने एक ऐसा घर खोला जिसमें लोग अपनी इच्छा से अपना आख़िरी समय बिता सकें। यह वो जगह थी जहां लोग सम्मान के साथ अपना आख़िरी समय बिता सकें। मदर टेरेसा अक्सर उन लोगों के साथ समय बिताती थीं। मदर शांति की पैगम्बर एवं शांति दूत महिला थीं, वे सभी के लिये मातृरूपा एवं मातृहृदया थीं। परिवार, समाज, देश और दुनिया में वह सदैव शांति की बात किया करती थीं। विश्व शांति, अहिंसा एवं आपसी सौहार्द की स्थापना के लिए उन्होंने देश−विदेश के शीर्ष नेताओं से मुलाक़ातें कीं और आदर्श, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक समाज के निर्माण के लिये वातावरण बनाया। कहा जाता है कि जन्म देने वाले से बड़ा पालने वाला होता है। मदर टेरेसा ने भी पालने वाले की ही भूमिका निभाई। अनेक अनाथ बच्चों को पाल−पोसकर उन्होंने उन्हें देश के लिए उत्तम नागरिक बनाया। ऐसा नहीं है कि देश में अब अनाथ बच्चे नहीं हैं लेकिन क्या मदर टेरेसा के बाद हम उनके आदर्शों को अपना लक्ष्य मानकर उन्हें आगे नहीं बढ़ा सकते?

मदर टेरेसा ने कभी भी किसी का धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश नहीं की। प्रार्थना उनके जीवन में एक विशेष स्थान रखती थी जिससे उन्हें कार्य करने की आध्यात्मिक शक्ति मिलती थी। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था। उन्होंने अपनी शिष्याओं एवं धर्म−बहनों को भी ऐसी ही शिक्षा दी कि प्रेम की ख़ातिर ही सब कुछ किया जाये। उनकी नजर में सारी मानव जाति ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने कभी भी अपने सेवा कार्य में धर्म पर आधारित भेदभाव को आड़े नहीं आने दिया। जब कोई उनसे पूछता कि ‘क्या आपने कभी किसी का धर्मांतरण किया है?’ वे कहती कि ‘हां, मैंने धर्मांतरण करवाया है, लेकिन मेरा धर्मांतरण हिंदुओं को बेहतर हिंदू, मुसलमानों को बेहतर मुसलमान और ईसाईयों को बेहतर ईसाई बनाने का ही रहा है।’ असल में वे हमेशा इंसान को बेहतर इंसान बनाने के मिशन में ही लगी थीं। वर्ष 2013 तक, 130 से अधिक देशों में 700 मिशन चल रहे थे। टर्मिनल बीमारियों वाले लोगों के लिए अनाथालयों और धर्मशालाओं को शामिल करने के लिए उनके काम के दायरे का भी विस्तार हुआ।

टेरेसा की ख्याति पूरे विश्व में फैल गई। मानव कल्याण में उनके द्वारा किये गये अभूतपूर्व कार्यों के कारण 1979 में, मदर टेरेसा को उनके मानवीय कार्यों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला।मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार समारोह के बाद उनके सम्मान में दिए जाने वाले भोज को रद्द करने का अनुरोध किया था, ताकि इस तरह से बचाए गए धन को कोलकाता के ग़रीबों की भलाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके। इन बातों से मदर टेरेसा के समर्पण और मनोभाव को समझा जा सकता है। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक उन्होंने ग़रीबों के शौचालय अपने हाथों से साफ़ किए और अपने कपड़ों को ख़ुद अपने हाथों से धोया।

बढती उम्र के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेस मेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके ह्रदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च 1997 को उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के मुखिया का पद छोड़ दिया और 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं।

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