हमारे शास्त्रकारों ने आमिष भोजन को तामसी भोजन बताया है। तामसी भोजन वह भोजन है, जिसके सेवन से शरीर में अनावश्यक उत्तजना उत्पन्न हो। ऐसा आहार करने से ही मनुष्य दुःखी, विवेकहीन, क्रोधी, नीच, अधर्मी, हिंसक, आलसी तथा पापी बन जाता है । इसी कारण मासाहार को आसुरी भोजन भी कहा जाता है। मांस खाना मुदो खाना हा है और जानवर या कोई जीव जहां मुर्दा हुआ कि उसके शरीर में तत्काल सड़न-क्रिया शुरू हो जाती है तथा घोरात्मक विष उत्पन्न होने लगता है। इससे उसके शरीर का सारा मांस कमोबेश विषैला हो जाता है। ऐसे मांस के खाने से मनुष्य की वृत्तियां उत्तेजित हो उठती हैं और वह मनुष्य से राक्षस बन जाता है। यहां तक कि यदि कहा जाए कि मांस खान के कारण ही संसार में लड़ाई-झगड़े और युद्ध होते हैं तो इस बात पर चौंकने की जरूरत नहीं है।
एक बार इंग्लैण्ड की शाकाहार समिति की 89वीं वार्षिक बैठक में उसके सभापति ने अपने भाषण में साफ शब्दों में कहा था, “मांस भक्षण और युद्ध में बहुत बड़ा सम्बन्ध है। भारत और चीन शान्त देश हैं, क्योकि वे निरामिषभोजी हैं।” पर उस समिति के सभापति को यह नहीं मालूम था कि भारत और चीन के भी अधिकांश निवासी बर्नार्डशा के शब्दों में “अपने पेट में कब्र बनाते रहते हैं।”
मांस खाने से अनगिनत रोग उत्पन्न होते हैं। गाय, सूअर और भेड़ के मास में बहुधा कोढ़ और क्षय रोग के कीटाणु होते हैं। मांस के सेवन से कसर, मिरगी, क्षय, पीलपांव, ज्वर, कृमि, यकृत रोग, संधिवात, नासूर तथा अन्य भीषण और असाध्य रोग हो जाते हैं । मांस खाने वालों को अक्सर ऐसे बीमार जानवरों का ही मांस खाने को मिला करता है, जिनके जोड़ों और हड्डियों में लगे मांस में रोग के किटाणु होते हैं। ये किटाणु मांस को आग पर पकाने से भी नहीं जाते, फलत: मांस खाने वाले के शरीर में रोगोत्पति का कारण बनते हैं।
मांस नोषजनमय होता है। इसके अधिक खाने से शरीर में आवश्यकता से अधिक नोषजन पहुंच जाता है, जिसके जिगर और गुर्दो का काम बेहिसाब बढ़ जाता है। फलत: वे रोगी हो जाते हैं और उनसे मलोत्सर्ग-क्रिया ठीक-ठीक न बन पड़ने के कारण शरीर रोगों का घर बन जाता है । इसी से गठिया, बहुमूत्र, दर्द-गुर्दा आदि महारोग जन्म लेते हैं।
बरनर मैकपेडन ने आंकड़ों से सिद्ध किया है कि कैन्सर के रोगियों में 95 प्रतिशत मांसाहारी होते हैं। आंत्रपुच्छ, बदहजमी, कोष्ठबद्धता, सिरदर्द, थकावट, नजला तथा स्वप्नदोष आदि भयानक रोग भी मांस खाने वाले लोगों को अधिक होते हैं।
इसी प्रकार सिलपेस्टर ग्रेहम, ओ.एम.फालर, जे.स्मिथ, ओ.ए.आलक्ट, हिडकलैण्ड, ए.जे.नाहट, जे. पोर्टर, बैनिस्टर वेलर, पार्मली लैम्ब, गिब्सन, अलेग्जेंडर, एफ.डब्ल्यू.पेवी आदि कितने ही प्रवीण और चोटी के चिकित्सकों ने अकाट्य प्रमाणों एवं अपने अनुभवों से यह सिद्ध किया है कि मांस-मछली खाने से शरीर रोगों का घर बन जाता है। उपर्युक्त डाक्टरों में से कुछ डाक्टर तो स्वयं मांस खाना छोड़ देने पर यक्ष्मा, अतिसार तथा मिरगी आदि रोगों से विमुक्त होकर पुनः सबल और स्वस्थ हुए हैं और उसके बाद उन्होंने अपने अन्य बहुत-से रोगियों को भी केवल मांस खाने की आदत छुड़ाकर तन्दुरुस्त किया है।
2 दांत का दर्द
दांत का दर्द कभी-कभी जब असह्य हो जाता है तो बड़ा कष्टदायक सिद्ध होता है। इसलिए दांत के दर्द को बढ़ने नहीं देना चाहिए और उसका उपचार तुरन्त करना चाहिए। दांत में दर्द आरम्भ होते ही सबसे पहले ठंडे जल से रोगी के सिर को धोकर उसपर ठंडे जल से भीगा और निचोड़ा तौलिया रखकर दो मिनट तक सहने लायक गरम जल से कुल्ला करना चाहिए। उसके तुरन्त बाद ठंडे जल से एक मिनट तक कुल्ला करना चाहिए। इसी प्रकार उसी समय इस क्रिया को तीन बार करना चाहिए। यानी कुल्ला गरम जल से आरम्भ करना चाहिए और ठंडे जल से समाप्त करना चाहिए। यदि दांत का दर्द अभी आरम्भ ही हुआ हो तो उपचार से वह अवश्य शान्त हो जाएगा। दर्द मिट जाने के बाद भी दो-तीन दिनों तक सुबह-शाम गरम और ठंडे कुल्लों का उपर्युक्त प्रयोग जारी रखना चाहिए। ऐसा करने से फिर कभी दांत का दर्द न होगा।
यदि दांत खराब हो तो शुद्ध मिट्टी विशेषकर बलुई मिट्टी से उनको रोज नियमित रूप से मांजना चाहिए या नमक मिले शुद्ध सरसों के तेल से उन्हें दिन में दो बार मलना चाहिए। यदि इस मिश्रण में दो-चार बूंद कागजी नीबू का रस भी मिला लिया जाए तो दांतों की सफाई अच्छी हो जाती है और उसमें स्थित रोगाणु तुरन्त मर जाते हैं।
दांतों के खराब होने का कारण पेट की खराबी है । इसलिए जब दांत खराब हो और उसमें टीस हो तो खान-पान में तुरन्त परिवर्तन कर देना चाहिए। भोजन में चीनी का प्रयोग कतई बन्द कर देना चाहिए और फलों तथा कच्ची साग-भाजियों को अधिक स्थान देना चाहिए। थोड़ा-थोड़ा करके जल अधिक मात्रा में पीना चाहिए और आरम्भ में तीन-चार दिन का उपवास करके एनिमा द्वारा पेट को साफ कर देना चाहिए।
यदि दांत के दर्द के साथ-साथ मसूड़े भी फूले हों तो मसूड़ों पर 10 मिनट तक भाप देनी चाहिए। भाप देते वक्त सिर पर ठंडे पानी से भीगा एक तौलिया अवश्य रख देना चाहिए। भाप देने के तुरन्त बाद एक मिनट तक ठंडे पानी से कुल्ला करना चाहिए। इस क्रिया के दो घंटे बाद फूले मसूड़े की तरफ के गाल के ऊपर 10 मिनट तक भाप देने के बाद 45 मिनट तक गीली मिट्टी की पट्टी या कपड़े की ठंडी पट्टी बांधकर उस पर ऊनी कपड़ा लपेट देना चाहिए। इस पूरी क्रिया को दिन में दो बार करना चाहिए।
इस रोग में दिन में दो बार उदर या मेहन-स्नान भी करना जरूरी है, ताकि शरीर के विजातीय द्रव्य, जो सभी रोगों का मूल कारण होता है, छंट जाएं और दांत का दर्द अथवा मसूड़ों का फूलना शीघ्र ठीक हो जाए।
3 नेत्र-विकार
संसार में मनुष्यों के सात प्रकार के नेत्र तथा लगभग 100 प्रकार के नेत्र-विकार होते हैं । नेत्र-रोगों के कितने ही कारण होते हैं, जिनमें निम्नलिखित कारण मुख्य हैं
सिर या नेत्र में चोट लगना, उत्तेजक वस्तुओं का सेवन, धुएं, धूल, तेज गर्मी या सूर्य की ओर देखना, अति स्त्री-प्रसंग, धातु-विकार, दांत उखड़वाना, अविहित त्राटक, गलत ढंग से आंखों से काम लेना, पेट की खराबी, डर, चिन्ता, क्रोध, मानसिक उद्वेग तथा फस्द खुलवाना आदि।
उपर्युक्त कारणों से जब शरीर-स्थित विजातीय द्रव्य नेत्रों के भीतर स्थित तरल पदार्थ में पहुंचकर उसमें कोई उपद्रव कर देता है तब कोई न कोई नेत्र-विकार उत्पन्न हो जाता है ।
नेत्र-रोग से बचने के लिए तथा नेत्र-रोग में भोजन के माध्यम से विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ और ‘डी’ का सेवन विशेष रूप से फलदायी होता है। विटामिन ‘ए’ दूध-मक्खन, टमाटर आदि में; विटामिन ‘बी’ चोकर, किशमिश, गाजर आदि में; विटामिन ‘सी’ नीबू, आंवला, संतरा आदि में तथा विटामिन ‘डी’ प्रातःकालीन धूप, धारोष्ण दूध तथा मक्खन आदि में अधिक होता है।
साधारण आंख आने में तीन-चार दिन तक फलाहार पर रहने के अतिरिक्त दो-एक बार एनीमा लेकर पेट साफ कर देना और दो बार गीली मिट्टी की पट्टी बांधना काफी होता है। इतना करने से आंखें बिलकुल साफ और ठीक हो जाएंगी। पर अगर आंखों में तकलीफ ज्यादा हो और कुछ दिनों पहले से आंखें आई हों तो दिन में एक या दो बार 1010 मिनट का उदर-स्नान देना चाहिए।
आंख के सभी रोगों में नमक का त्याग कर देना चाहिए और भोजन में ताजे फलों और ताजी हरी साग-सब्जियों को अधिक स्थान देना चाहिए। ऐसा करने से शरीर का रक्त शुद्ध होकर नेत्र रोगों के निराकरण में सहायक सिद्ध होगा। इसके अलावा आवश्यकतानुसार उदर-स्नान, मेहन-स्नान, रीढ़ की गीली पट्टी तथा आंखों पर और गर्दन के पीछे के भाग पर गीली मिट्टी के प्रयोग से लगभग सभी नेत्र-रोग ठीक किए जा सकते हैं।
4 बेहोशी
कई कारणों से मनुष्य अचानक बेहोश हो जाता है। डर, भय, सदमा, शरीर से अधिक रक्त के निकल जाने, तेज धूप लगने, जल में डूबने, फांस लगने तथा घुटन आदि से जब मस्तिष्क में रक्त की कमी हो जाती है तो आदमी बेहोश हो जाता है। बेहोशी में शरीर की नस-नाड़ियों के स्वाभाविक कार्य में बाधा पड़ जाने से मस्तिष्क न तो शरीर के दूसरे भागों में होने वाले व्यापार को जान सकता है और न उसपर अपना नियंत्रण रख सकता है।
किसी के अचानक बेहोश हो जाने पर सबसे पहले उसके बेहोश होने के कारण को दूर करना चाहिए। फिर जल्दी से जल्दी उसके शरीर के सभी कपड़े काफी ढीले कर देने चाहिए। इसके बाद उसे आराम से जमीन या चारपाई पर सिर को थोड़ा नीचा करके लिटा देना चाहिए। रोगी को साफ ताजी हवा लगने देना चाहिए और उसके चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे देने चाहिए, ताकि मस्तिष्क की ओर रक्त प्रवाहित हो। मस्तिष्क में रक्त पर्याप्त मात्रा में पहुंचते ही बेहोशी दूर हो जाएगी। तब उसे जल या फल-रस या हल्का गरम दूध पिलाना चाहिए।
कठिन बेहोशी की हालत में कभी-कभी सांस रुक जाती है। उस वक्त पानी में डूबे हुए आदमी की दशा में ऊपर बताए गए बनावटी सांस लेने के तरीके से उसकी सांस वापस लानी चाहिए। रोगी के चेहर पर ठंडे पानी का छींटा देने के अलावा उसके सीने और मस्तिष्क पर कपड़े की ठंडी पटियां भी रखनी चाहिए तथा पेडू पर मिट्टी का गाली पट्टी ।
होश आ जाने पर रोगी को गुनगुने पानी का एनिमा भी देना जरूरी है। बेहोशी की हालत में रोगी को पानी आदि कुछ भी नहीं पिलाना चाहिए। होश आने पर यदि रोगी की नब्ज धीमी चलती हो तो उसको गरम पानी पिलाना चाहिए, पर बेहोशी के साथ-साथ यदि भीतर या बाहर रक्त भी बहता हो तो उस हालत में गरम पानी न पिलाकर ठंडा पानी पिलाना चाहिए।
बेहोश आदमी और मुर्दे में बहुत कम अंतर होता है । बेहोश आदमी का नाक के पास शीशे का टुकड़ा ले जाने पर शीशे पर भाप जम जाती है पर मुर्दे की नाक के पास शीशे का टुकड़ा ले जाने से शीशे पर भाप नहीं जमेगी।