Don't Miss

21. मरुदूर गोपालन रामचन्द्रन भारतरत्न- 1988

21.मरुदूर गोपालन रामचन्द्रन, भारतरत्न- 1988

(जन्म: 17 जनवरी, 1917, मृत्यु: 24 दिसम्बर, 1987)

“अपार लोकप्रियता प्राप्त कर लेने के बाद आमतौर पर नेता की सोच में एक गहरा विश्वास पैदा हो जाता है कि देश और देशवासियों का वास्तविक हितैषी वही है। यह किसी सीमा तक स्वाभाविक भी है। इस आत्मविश्वास के कारण मानव में स्वेच्छाचारी अधिनायक और किसी सीमा तक निरंकुश शासक जन्म लेता है, किन्तु एम.जी.आर. अर्थात एम.जी. रामचन्द्रन इससे अछूते थे।”

एम.जी.आर. के नाम से प्रसिद्ध भारतीय सिनेमा में नायक की भूमिका अदा करने वाले मरुदूर गोपालन रामचन्द्रन का जन्म श्रीलंका के कैंडी नामक शहर में 17 जनवरी 1917 को, एक मलयाली परिवार में हुआ था । उस समय भारत और श्रीलंका दोनों पर अंग्रेज़ों का शासन था । उनके पिता गोपालन मैनन कैंडी में मजिस्ट्रेट थे। एम.जी.आर. अपने माता-पिता की पांचवीं सन्तान थे। उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही पिता का देहान्त हो गया और मां सत्यभामा अपने परिवार के साथ तमिलनाडु के कुम्भकोणम में बस गई।

आर्थिक परिस्थितियों के कारण एम.जी.आर. ने बचपन से ही रोटी कमाना शुरू कर दिया। वह पढ़ाई-लिखाई भी इसी कारण ठीक से नहीं कर पाए। नाटकों में छोटा-मोटा अभिनय करके अपने परिवार का पेट पालने लगे। जब कुछ बड़े हुए, तो फ़िल्मों में काम मिलने लगा। उनकी मां ने उन्हें सदा आशावादी बने रहने और काम के लिए जूझते रहने की शिक्षा दी। वह आरम्भ से ही सुन्दर और सुदर्शन थे। सात वर्ष की आयु में ही मदुरै में उन्होंने ‘मदुरै ओरिजनल ब्वाय कम्पनी’ के नाटकों में काम करना आरम्भ कर दिया था। सुन्दरता और सुडौल छरहरे शरीर के कारण उन्हें स्त्री पात्रों के रोल आसानी से मिल जाते थे, जिसे वह बड़ी आसानी से निभा लेते।

एम. जी. आर. को पहली बार ‘सती लीलावती’ फ़िल्म में पुरुष रूप में पुलिस की भूमिका निभाने को मिली। यह सिनेमा में उतरने का उनका पहला अवसर था और यही उनकी सफलता की पहली सीढ़ी थी। ‘मालैकल्लन’ नामक फ़िल्म में उन्हें गरीबों और दलितों की सेवा करने वाले समाज- सेवी नायक का रोल करने का अवसर मिला। इसके बाद अनेक फिल्मों में एम.जी.आर. कमज़ोर वर्ग के लोगों के भले के लिए ज़मींदारों तथा प्रशासकों से मुक़ाबला करते हुए दिखाए गए। फ़िल्मों में नायक की इस भूमिका का दर्शकों ने दिल से स्वागत किया और प्रशंसा की। उनके लिए दर्शकों में प्यार का सागर हिलोरें लेने लगता। जब वह सारी मुसीबतों पर विजय प्राप्त करके प्रकट होते, तो सिनेमाघर तालियों की गूंज में डूब जाता। स्त्रियां रोने लग जातीं। ‘मर्मयोगी’ ‘नाडोडिमन्नम’ और ‘एंग वीट्टू पिल्लै’ आदि फ़िल्मों में उन्होंने अपनी यही छवि बनाए रखी और तमिलभाषी दर्शकों के दिल-दिमाग़ पर छा गए। युवा पीढ़ी एम.जी.आर. को अपना आदर्श मानने लगी। पुरुषों के मन उनके लिए आदर से भर गए। स्त्रियां उनकी भक्त हो गईं और आरती उतारने लगीं सभी को विश्वास था, यदि कोई उन्हें ग़रीबी, शोषण और भ्रष्टाचार की दलदल से मुक्ति दिला सकता है, तो वह है एम.जी.आर.।

बहुत-से अभिनेता ज़रा-सी प्रसिद्धि और समृद्धि प्राप्त कर लेने के बाद ज़मीन पर चलना भूल जाते हैं, परन्तु एम.जी.आर. सफल अभिनेता बन जाने के बाद भी अपने अतीत को भूले नहीं। इसीलिए ग़रीबों से दूर कभी नहीं भागे। उन्होंने अपनी इस छवि को भरपूर निभाया। लोगों की मदद करके उन्हें मानसिक सन्तोष और अलौकिक आनन्द मिलता था।

पर्दे के बाहर भी वह दोनों हाथों से धन लुटाते। जब कभी फ़िल्म की शूटिंग के लिए किसी गांव में जाते, तो उस क्षेत्र के ग़रीबों, किसानों व मज़दूरों के सामने एम.जी.आर. अपनी जेबें ख़ाली कर देते। वह फ़िल्म की यूनिट के सहकर्मियों की सहायता करने से भी पीछे नहीं हटते थे।

वह समाज-सेवा की ओर निरन्तर झुकते चले गए। उन्होंने ‘द्रविड़ मुनेत्र कषगम’ पार्टी में प्रवेश ले लिया। इसके संस्थापक सी.एन. अन्नादुरै को एम. जी.आर. की लोकप्रियता का ज़बर्दस्त लाभ मिला। पं. जवाहरलाल नेहरू ने जब भारत-चीन युद्ध के दौरान युद्ध के लिए आर्थिक सहयोग की अपील की, तब उन्होंने एक लाख रुपए सहायतार्थ भेंट करके अपनी दानवीरता का उदाहरण पेश किया।

एम.जी.आर. अन्नादुरै से बहुत प्रभावित हुए और उनके दिशा निर्देश में उन्होंने ख़ूब जमकर काम किया। 1972 में एम.जी.आर. ने करुणानिधि से मतभेद होने के कारण एक अलग दल गठित किया और नाम दिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम, जो बाद में आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम कहलाया जाने लगा।

इससे पूर्व एम.जी.आर. ने कांग्रेस में कामराज के नेतृत्व में भी काम किया था। भारत-चीन युद्ध के समय एम.जी.आर. ने एक लाख रुपए भेंट किए, जिसकी पहली किस्त के रूप में पच्चीस हज़ार रुपए उसी समय मुख्यमन्त्री कामराज को दे दिए, तो एक पत्रकार की टिप्पणी थी कि यह भेंट एम.जी. आर. ने अपनी छवि और प्रचार के ख़ातिर दी है। तब कामराज ने मुंहतोड़ उत्तर दिया कि उन्हें (एम.जी.आर.) इस प्रकार के प्रचार की आवश्यकता नहीं है। उनकी इस भेंट को केवल पैसे की तराजू से मत तोलिए, बल्कि इसके पीछे उनके सद्भाव निष्ठा को ध्यान में रखिए।

जब सिनेमा में गरीबों, असहायों और निर्बलों की हिमायत लेने वाले इस नायक ने तमिलनाडु की जनता से भ्रष्टाचार मिटाने का वायदा किया, तो जनता ने उसे सत्ता के आसन पर बैठा दिया। यह 1977 की बात है, जब एम.जी. आर. तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री बने थे।

उनके उदार और दयालु स्वभाव के कारण उन्हें ‘पोनमन चेमल’ (स्वर्ण हृदय वाला पुरुष) कहा जाने लगा। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प है। एक बार फ़िल्म निर्माता-निर्देशक चिन्नप्पा देवर हरिकथा के माहिर कलाकार कृपानन्द वारियार को लेकर एम.जी.आर. के पास पहुंचे। निर्माता चिन्नप्पा देवर की कुछ फ़िल्मों में एम.जी.आर. ने काम किया था और दोनों के सम्बन्ध मधुर थे। थे । चिन्नप्पा देवर ने वारियार का परिचय देते हुए बताया कि वह मरूदमलै में भगवान मुरुगम का एक मन्दिर बनवाने के लिए धन एकत्रित करते हुए एम.जी.आर. के पास आए हैं। एम.जी.आर. ने एक ख़ाली चैक पर अपने हस्ताक्षर किए और उन्हें देते हुए कहा, “जितना चाहिए, राशि भर लीजिए।” कुछ दिन बाद एक सार्वजनिक सभा में कृपानन्द वारियार ने वह घटना सुनाते हुए एम.जी.आर. को ‘पोनमन चेमल’ की उपाधि से विभूषित किया।

एम.जी.आर. का शासन करने का तरीक़ा सख़्त था। इस वजह से अधिकारी वर्ग पर बुरा असर पड़ा। वह आई.ए.एस. अधिकारियों को सबके सामने झिड़क दिया करते थे। यही कारण था कि उनके शासनकाल में कुछ अधिकारियों को सेवाएं छोड़नी पड़ीं। उन्होंने ग़रीब बच्चों को जूते, कपड़े और दांतों का पाउडर उपलब्ध कराने के साथ-साथ राज्य के पचास लाख बच्चों को दोपहर के भोजन का भी बन्दोबस्त कराया।

उनकी छवि उनके कुछ क्रान्तिकारी एवं रचनात्मक कार्यक्रमों के कारण साफ़-सुथरी बनी रही। उनकी इच्छा-शक्ति बड़ी प्रबल थी और वह स्वयं ही भाषण देते थे। जब उनके एक साथी अभिनेता एम.आर. राधा ने ईर्ष्या से उनकी गर्दन पर घातक प्रहार किया, तब भी वह अपनी फ़िल्म के संवाद स्वयं ही बोलते थे, डब नहीं करवाते थे। इस हालत में भी उन्हें अपनी छवि की चिन्ता अधिक थी। सफ़ेद टोपी, काला चश्मा, सफ़ेद रंग का चुस्त और लम्बा कुर्ता, कलाई पर बड़ी घड़ी, सफ़ेद लुंगी, पांवों में चप्पल अथवा पम्प शू और कन्धों पर पड़ा रंगीन कारचोबी कढ़ा हुआ शॉल, यही थी उनकी छवि। उन्हें धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था थी। 1984 में उनके गुर्दे फ़ेल हो गए। वह अमेरिका के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे। उनकी आवाज़ ने भी जवाब दे दिया था। तब उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कर्नाटक में स्थित मूकम्बिया मन्दिर में अपने नेता के स्वास्थ्य के लिए पूजा-अर्चना की थी।

22 दिसम्बर 1987 को, कत्थिपारा के चौराहे पर एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई थी। इस समारोह में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमा का अनावरण किया था। इस सभा में भाग लेने के कारण वह थककर चूर हो गए थे। दूसरे दिन शाम पांच बजे उन्हें बेचैनी महसूस हुई। रोग बढ़ता गया। 24 दिसम्बर, 1987 को प्रातः तीन बजे सोने जैसे दिल वाला वह नायक सदा के लिए हमसे विदा हो गया।

उनके निधन के बाद 25 जनवरी 1988 को, एम.जी.आर. को भारत सरकार ने मरणोपरान्त सर्वोच्च उपाधि भारतरत्न से विभूषित करके उनकी सेवाओं का सम्मान किया।

About Narvil News

x

Check Also

47. प्रणब मुखर्जी

प्रणब मुखर्जी