गोविन्दवल्लभ पन्त (भारतरत्न 1957)

“हमारे प्रिय हिमालय पर्वत का बेटा उन्हीं पर्वतों की तरह शान्त, अविचलित, निर्विकार व चट्टान की तरह स्थिर एवं मज़बूत है तथा लोगों के मन को दिशा दिखाने के लिए प्रकाश स्तम्भ की तरह है।” पं. जवाहरलाल नेहरू ने कुछ इस तरह पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के लिए कहा था। गोविन्द वल्लभ पन्त भारतीय राजनीति के उन दूरदर्शी नेताओं में से एक थे, जिन्होंने अपने देश को दासता की बेड़ियों से आज़ाद कराने के लिए अपना खून बहाया था।

10 सितम्बर, 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट ग्राम में जन्मे गोविन्द वल्लभ को बचपन में सभी थापा कहकर पुकारते थे, जिसके मायने ‘स्वापित मूर्ति’ होता है। वह बचपन से ही बड़े गम्भीर स्वभाव के थे। जब बच्चे गेंद या कोई दूसरा खेल खेलते होते, तो बालक गोविन्द एक स्थान पर बैठे एकटक उन्हें देखते रहते। इस समय वह किसी स्विर मूर्ति की तरह लगते थे। वह वे भी सुन्दर। गोल-मटोल चेहरा, गोरा-चिट्टा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, उनकी सहज सौम्य प्रकृति सभी को आकर्षित करती थी।

उनके पिता पं. मनोरथ पन्त सरकारी नौकरी में थे और अपने घर से दूर रहते थे। इसलिए उनका पालन-पोषण अधिकतर ननिहाल में हुआ। उनके नाना रायबहादुर बद्रीप्रसाद जोशी अल्मोड़ा में जुडीशियल अधिकारी थे। वह उन्हें बेहद प्यार करते थे। नाना ही नहीं, घर के सभी लोगों से उन्हें बेहद प्यार मिला। ननिहाल में मां के प्यार की कमी मौसी धनीदेवी पूरी करती थीं। दस वर्ष तक घर पर ही शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें स्थानीय रैमज़े इंटरमीडिएट कॉलेज में भेजा गया। वह जल्दी ही अपने अध्यापकों के प्रिय छात्र बन गए।

1899 में गोविन्द जब सातवीं कक्षा के छात्र थे, तब उनका विवाह पं. बालादत्त जोशी की पुत्री गंगादेवी के साथ हो गया। उनके विवाह के कुछ दिनों बाद नाना बद्रीप्रसाद का स्वर्गवास हो गया। उनके लिए यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी, क्योंकि नाना का उन पर गहरा प्रभाव था। उनके साथ रहते हुए गोविन्द की रुचि राजनीति में होने लगी थी। पढ़ाई में वह तेज़ थे । मिडिल और मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में पास हुए। इंटर पास किया, तो उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। 1905 में आगे पढ़ाई करने के लिए परिवारजनों का विरोध सहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गए। इलाहाबाद में उन्हें आसानी से म्योर सेंट्रल कॉलेज में बी.ए. में प्रवेश मिल गया ।

इलाहाबाद उस समय राजनीति का गढ़ माना जाता था। गोविन्द के इलाहाबाद पहुंचते ही बंगाल विभाजन की घोषणा हो गई। इसी के साथ स्वदेशी यानी ‘भारतीय वस्तुओं को अपनाओ और विदेशी का बहिष्कार करो’ आन्दोलन की शुरूआत हुई। दिसम्बर में वह वाराणसी में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में स्वयंसेवकों के रूप में शामिल हुए। वहां गोपालकृष्ण गोखले से मिले । गोविन्द उनके भाषण से बड़े प्रभावित हुए। इसी बीच महामना मदनमोहन मालवीय के भी सम्पर्क में आए। इसी के चलते उनके अन्दर देश-सेवा की भावना ने जन्म ले लिया।

1906 के माघ मेले में कांग्रेस का प्रचार किया और एक सभा में ज़ोरदार भाषण दिया। इसकी सूचना कॉलेज के प्रिंसिपल जैनिंग्स को मिल गई। उसने उन्हें बी.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा से रोकने का आदेश दे दिया। तब गणित के प्रोफ़ेसर कॉक्स के हस्तक्षेप से परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली, किन्तु अपने भाषण की वजह से वह नेताओं के बीच चर्चा का विषय बन चुके थे।

उसके बाद गोखले इलाहाबाद आए। उन दिनों गोविन्द बी.ए. के अन्तिम वर्ष में पढ़ रहे थे। गोखले ने उस सभा में नौजवानों को भारत मां की सेवा करने के लिए ललकारा था। गोविन्द ने तय कर लिया कि पढ़कर सरकारी नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने क़ानून पढ़कर वकालत करके स्वतन्त्र जीवन अपनाना अधिक उचित समझा। अतः 1907 में एल. एल. बी. में प्रवेश ले लिया। मेओ कॉलेज में क़ानून विभाग का यह पहला बैच था, जिसमें पन्त जी भी शामिल थे। एल.एल.बी. की परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इसके लिए उन्हें दीक्षान्त समारोह में ‘लम्सडेन स्वर्ण पदक’ दिया गया।

सन् 1909 में उन्होंने काशीपुर में वकालत शुरू कर दी। बहुत अधिक परिश्रम और लगन के कारण उनकी वकालत ख़ूब चल निकली। साथ ही समाज सेवा की ओर झुकाव भी बढ़ता गया। कुछ दिनों बाद उन्हें काशीपुर के म्युनिसिपल बोर्ड का सदस्य चुन लिया गया। उन्होंने एक हाई स्कूल की स्थापना में भी सक्रिय सहयोग दिया। बहुत ज़ोर देने पर फिर से विवाह के लिए तैयार हो गए। उनके माता-पिता भी काशीपुर आ गए। इसी के साथ परिवार में दुर्घटनाओं का सिलसिला आरम्भ हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात पत्नी और पुत्र दोनों की मृत्यु हो गई। यही नहीं उनके बहनोई का भी निधन हो गया। इससे उन्हें गहरा आघात पहुंचा। इन दुखों से उबरने की कोशिश में उन्होंने अपने आप को काम में डुबो दिया।

1914 में काशीपुर में प्रेम-सभा के नाम से एक संस्था आरम्भ की। यह संस्था साहित्यिक और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय थी। उनके प्रयत्नों से ही काशीपुर नरेश ने 1914 में ही उदयराज हिन्दू इंटर कॉलेज की स्थापना की। गोविन्द वल्लभ पन्त इस संस्था के प्रधानमन्त्री बने ।

उन दिनों सरकारी ओहदेदारों का एक प्रकार से एकछत्र राज हुआ करता था। वे हर किसी गांव वाले को पकड़कर अपनी सेवा-टहल करवाते और बिना कुछ दिए छोड़ देते। यदि कोई मना करता, तो उस बेचारे पर जुल्मों के पहाड़ तोड़ देते। इस मनमानी के ख़िलाफ़ उन ग़रीबों की सुनने वाला कोई नहीं था। उघर सरकारी ओहदेदारों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था। गांव में कोई चाहे कितना ही इज़्ज़तदार क्यों न हो, उनकी आवरू धूल में मिला दी जाती। पन्त जी ने इन अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाई और कुमाऊं परिषद के माध्यम से एक आन्दोलन शुरू कर दिया। उनका कहना था कि जब सरकारी अफ़सरों का काम करने के लिए चपरासी दिए जाते हैं, तो फिर अपनी टहल करवाने के लिए गांव वालों को पकड़कर मुफ्त में काम कराने का क्या अधिकार है ? इस बेगार प्रथा को बन्द करवाने का बीड़ा उन्होंने उठाया।

वह काशीपुर से नैनीताल और नैनीताल से इलाहाबाद के उच्च न्यायालय में जा पहुंचे। 1916 में लखनऊ कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने कुमाऊं का ही प्रतिनिधित्व किया। यहां उन्होंने सर्वप्रथम गांधी जी और भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को सुना। 1917 में पन्त जी तीस वर्ष की आयु में मां की ज़िद के आगे हारकर तीसरे विवाह के लिए तैयार हुए और इस तरह काशीपुर के ही तारादत्त जोशी की बेटी कलावती देवी से उनका विवाह हो गया। कलावती देवी से ही उन्हें एक पुत्र कृष्णचन्द्र पन्त और दो पुत्रियां हुईं। तब तक देश का राजनीतिक वातावरण काफ़ी हलचल भरा हो चुका था।

13 अप्रैल, 1919 को पंजाब के जलियांवाला बाग़ कांड ने देश को झकझोर कर रख दिया, किन्तु वह गांधी जी से प्रभावित थे। उनके असहयोग आन्दोलन पर उनका विश्वास था। इसलिए 1922 में वकालत के पेशे से हाथ खींच लिया। उस समय वह बहुत लोकप्रिय तथा योग्य वकीलों में गिने जाते थे और उनकी वकालत ज़ोरों से चल रही थी। वह कुमाऊं के निवासियों की तरक़्क़ी के लिए लड़ते रहे। सर्वप्रथम 1923 में पं. मोतीलाल नेहरू ने उनकी प्रतिभा और सूझबूझ का अन्दाज़ा लगाकर उसी वर्ष उन्हें स्वराज्य दल का नेता चुन लिया। वह उत्तर-प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी तभी चुने गए। इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को उन्होंने कुशलता के साथ निभाया।

1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार सारे भारत में हुआ। लाहौर में लाला लाजपतराय घायल होकर हमेशा-हमेशा के लिए आंखें मूंद चुके थे।  लखनऊ में भी साइमन कमीशन पहुंचा। उसके विरोध में नौजवानों ने पूरी तैयारी की हुई थी। शहर में दफा 144 लगा दी गई थी। इसलिए किसी भी तरह की सभा करने या जुलूस निकालने की सख्त पाबन्दी थी, फिर भी साहमन कमीशन के लिए चारबाग रेलवे स्टेशन पर टुकड़ियों में उत्साही युवक पहुँच चुके थे। एक दल का नेतृत्व पन्त जी के हाथों में था। ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे लगाते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे। अचानक सशस्त्र पुलिस और घुड़सवारों ने उस दल को घेर लिया। क्रूरता से लाठियां बरसाई जाने लगीं। नौजवान पन्त तब तक लाठियां और कोड़े खाते रहे, जब तक मूर्च्छित होकर नहीं गिर पड़े, परन्तु उनके होंठ फड़फड़ाते रहे और कहते रहे, ‘साइमन वापस जाओ!’ इस निर्मम यातना ने पन्त जी को जीवन-भर सीधा नहीं होने दिया ।

घटना के कुछ समय बाद प्रान्तीय असेम्बली में सी.वाई. चिन्तामणि ने इस विषय में ‘काम रोको’ प्रस्ताव रखा। इसमें पन्त जी को घटना के वर्णन के लिए कहा गया, किन्तु वे अत्यन्त संकोच में थे।

उन्होंने कहा, “आज मुझे सदन के सामने बोलने में भारी संकोच हो रहा है। साइमन कमीशन के लखनऊ आगमन पर घटी घटनाओं के विषय में मुख्य रूप से मेरा नाम जोड़ा जाता है। मैं इतना कह सकता हूं कि मुझमें किसी प्रकार की हिंसा या गुस्से का भाव नहीं है। यदि निष्ठा या व्यक्तिगत स्पष्टीकरण देने की अनुमति हो, तो मैं नम्रता से कह सकता हूं कि 29-30 नवम्बर को किए गए अपने कार्य पर मुझे गर्व है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें पाशविकता का अहिंसात्मक सामना करने की शक्ति दे, जिससे हम कठिन परिस्थितियों में भी सफल हो सकें। यही पशु शक्ति पर स्थित इस शासन को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है।” अहिंसा को मानने वाले पन्त जी ज़िला मजिस्ट्रेट, नैनीताल की नज़र में एक ख़तरनाक व्यक्ति थे। 19 जनवरी, 1932 में उनके हल्द्वानी वाले घर की तलाशी ली गई और वहां कांग्रेस कार्यालय को ज़ब्त कर लिया गया। 18 फ़रवरी को उन्हें बन्दी बनाकर उन पर तुरत-फुरत मुकदमा चलाया गया और देहरादून जेल भेज दिया गया। अगस्त, 1932 में पन्त जी जेल से छूटे।

1937 में आंशिक रूप से भारतीय शासन स्वीकार कर कांग्रेस ने प्रादेशिक विधान सभाओं में प्रवेश किया। पन्त जी उत्तर-प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। प्रान्तीय गवर्नरों तथा वायसराय दोनों ने कांग्रेस सरकार को यह आश्वासन दिया था कि रोज़ के प्रशासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। पन्त जी ने तब तक मन्त्रिमंडल नहीं बनाया, जब तक उन्हें गवर्नर से उक्त आश्वासन नहीं मिल गया।

कांग्रेस का अन्तिम लक्ष्य सम्पूर्ण स्वराज्य ही था। उस लक्ष्य तक पहुंचाने वाला एक वातावरण तैयार करने के लिए ही कांग्रेस ने प्रान्तों में सरकारें बनाना स्वीकार किया था। उसके सामने देश के असंख्य शोषित मज़दूर, बेसहारा किसान और गरीब जनता थी, जिसे दो वक़्त भरपेट रोटी तक नसीब नहीं थी। मिल मालिकों, महाजनों और ज़मींदारों के शोषण का भयानक जाल फैला था। अत्याचारों की सीमा ही नहीं थी। लोगों की हालत कीड़े-मकोड़ों से भी गई-गुज़री थी। राजनीतिक बन्दियों का भी बुरा हाल था। कांग्रेस ने सरकार बनाने के बाद सबसे पहले ऐसे बन्दियों को मुक्त किया और जिनके विरुद्ध मुक़दमे चल रहे थे, वापस ले लिये।

द्वितीय विश्वयुद्ध 1939 में शुरू हो चुका था। भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने एक वक्तव्य प्रकाशित कराया, जिसमें इंग्लैंड के लिए सहानुभूति दिखाते हुए भारतीयों से अनुरोध किया गया था कि संकट की घड़ी में भारत को इंग्लैंड का साथ देना चाहिए, वह भी बिना शर्त कांग्रेस को यह बात मंजूर नहीं थी। इसलिए उसने एक शर्त रखी कि इंग्लैंड भारत को स्वायत्तता का वचन दे, तो देश उसकी सहायता करेगा, परन्तु लार्ड लिनलिथगो ने फिर चालें चलीं, जिससे संयुक्त प्रान्त के मन्त्रिमंडल ने अन्य प्रान्तों के कांग्रेसी मन्त्रिमंडलों के साथ त्यागपत्र दे दिया। इस तरह पन्त जी के मन्त्रिमंडल का कार्य बीच में ही समाप्त हो गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध 1940 तक चलता रहा और गांधी जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का निर्णय लिया, जिसका नारा था- ‘न एक भाई और न एक पाई’, अर्थात न तो हम महायुद्ध में अपने किसी भाई को भेजेंगे और न एक पाई की आर्थिक सहायता ही देंगे। इस फैसले का यह असर हुआ कि सभी बड़े नेताओं के साथ पन्त जी भी जेल में बन्द किए गए। बाद में 17 नवम्बर, 1941 को उन्हें छोड़ा गया।

1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तो उन्हें संयुक्त प्रान्त का मुख्यमन्त्री बनाया गया। आज़ादी के तुरन्त बाद प्रायः सारा उत्तर भारत दंगों की आग में झुलस उठा । हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए। इन हालात में भी पन्त जी ने दोस्तों से कहा कि चाहे सारे भारत में कुछ भी हो, पर संयुक्त प्रान्त हमेशा संयुक्त ही रहेगा। वास्तव में उनकी प्रशासनिक योग्यता की तारीफ़ करनी होगी कि संयुक्त प्रान्त साम्प्रदायिकता की आग से बिल्कुल अलग रहा। हालांकि पंजाब व सिन्ध से भागकर शरणार्थी वहां भी पहुंचे और बसने लगे, पर वहां हिन्दू-मुसलमान एक साथ मेल और प्यार से रहते रहे।

उत्तर-प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद पर रहते हुए उन्होंने विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण काम किए। तराई अंचल में 16,500 एकड़ ‘एक जोत’ ज़मीन को कृषि योग्य बनाया। यहां एक कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। वहां के फूलों के बगीचे, सुन्दर इमारतें, दूध के केन्द्र, मनोरम झीलें, हवाई अड्डा आदि सभी कुछ आज भी पन्त जी की याद दिलाते हैं।

पं. जवाहरलाल नेहरू को उनकी दूरदर्शिता पर गहरा विश्वास था। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद केन्द्रीय गृह मन्त्रालय को संभालने के लिए उतने ही मज़बूत हाथों की आवश्यकता थी। पं. नेहरू को यह सहयोग पन्त जी से मिला। केन्द्र सरकार में गृहमन्त्री के रूप में उन्होंने बड़ी ख़ूबी के साथ पद संभाल लिया।

पन्त जी में सहने की शक्ति भरपूर थी। एक दिन संसद में राज्यों के पुनर्गठन के सम्बन्ध में बड़ी गर्मागर्म बहस चल रही थी। उनके एक असन्तुष्ट मित्र उनसे झगड़ा करने के उद्देश्य से उन पर आरोप पर आरोप लगाने लगे। क़रीब एक घंटे तक वह उनकी आलोचना करते रहे, किन्तु पन्त जी चुपचाप सुनते रहे। अन्त में जब मित्र चुप हुए, तो उन्होंने मुस्कराकर और बड़ी नम्रता से पूछा, “क्या आपको कुछ और कहना है?” पन्त जी के धैर्य, नम्रता और सहनशक्ति का उन पर ऐसा गहरा असर पड़ा कि वह उनकी प्रशंसा करते हुए लौटे।

पन्त जी भारतरत्न से अलंकृत देश के पहले नेता थे, जो गृहमन्त्री रहे थे। 1957 में इस राजनेता को भारत सरकार ने इस सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया। 7 मार्च, 1961 को देश के इस सपूत ने अपना शरीर त्याग दिया।

 

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