पुरुषोत्तमदास टंडन, (भारतरत्न- 1961)
(जन्म-१ ऑगस्ट १८८२ , मृत्यु- १ जुलै १९६२),
“यह महापुरुषों की निशानी है कि जो उनसे मिले, लेकर गए। हमने भी उनसे लिया, जिससे दिल और दिमाग़ की दौलत बढ़ी। वह हम सबके बड़े भाई थे। हम सब उनसे मुहब्बत करते थे। डर था, मालूम नहीं कब डांट दें। जब वह कोई बात नापसन्द करते, तो दिल खोलकर कह देते।”
ये पंक्तियां कही थीं पं. जवाहरलाल नेहरू ने राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के सम्बन्ध में। वह प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में मशहूर थे। चरित्र में हिमालय के समान अटल थे । सामान्य से उठकर ऋषि-तुल्य समझी जाने वाली हस्ती थे पुरुषोत्तमदास टंडन|
प्रयाग के पवित्र तीर्थस्थान में 1 अगस्त, 1882 को श्रावण शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन शालिगराम टंडन के यहां काफ़ी प्रतीक्षा के बाद एक गोरे-चिट्टे बालक का जन्म हुआ। श्रावण वर्ष का सबसे उत्तम मास कहा जाता है। हो सकता है, इसीलिए उनका नाम पुरुषोत्तम रखा गया। उनके मोहल्ले में चौधरी महादेव प्रसाद के घर के सामने पीपल की छाया में एक मौलवी साहब ने देवनागरी का अक्षर-ज्ञान करवाया। साथ ही उन्हें गिनती भी सिखाई गई। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद परिवारजनों ने उन्हें स्थानीय डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिलवा दिया।
वह पढ़ने में बड़े ही अच्छे थे। आरम्भ में ही अपनी तेज़ बुद्धि के बल पर दो बार ‘डबल प्रमोशन’ पा गए और 1897 में एंटेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर ली। इंटरमीडिएट उन्होंने कायस्थ पाठशाला से किया और म्योर सेंट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में बी.ए. और बी.एस-सी. दोनों की पढ़ाई एक साथ आरम्भ कर दी। 1904 में उन्होंने बी.ए. पास कर लिया।
शिक्षा के साथ-साथ युवक पुरुषोत्तम दास अपने कॉलेज में होने वाली भाषण प्रतियोगिताओं, व्यायाम, क्रीड़ाओं और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी भाग लेते थे। अपने असाधारण चरित्र के कारण कॉलेज में उन्हें जीसस क्राइस्ट कहा जाने लगा था।
बी.ए. पास करने के बाद दो वर्ष तक वकालत पढ़ी और उसके तुरन्त बाद सर तेजबहादुर सप्रू की छत्र-छाया में वकालत शुरू कर दी। वह उनके जूनियर थे। इतने पर भी उनकी ज्ञान की प्यास शान्त नहीं हुई। उन्होंने एम. ए. भी कर लिया। 1908 में हाईकोर्ट में वकालत शुरू करने पर वह जल्दी ही काफी मशहूर हो गए।
टंडन जी का विवाह छोटी उम्र में ही हो गया था। उस समय उनकी आयु केवल पन्द्रह वर्ष थी और पत्नी की बारह वर्ष । पत्नी चन्द्रमुखी देवी मुरादाबाद के नरोत्तमदास की बेटी थीं। उनका स्वभाव बहुत सरल था। वह धर्मपरायण महिला थीं। वैसे तो वह साधारण शिक्षित थीं, परन्तु थीं एक आदर्श गृहिणी।
वकालत जैसे पेशे में पड़कर भी टंडन जी अपने सिद्धान्तों सच्चाई और ईमानदारी पर चट्टान की तरह डटे रहे। वह अपनी सरलता, ईमानदारी और सच्चरित्रता के लिए बार एसोसिएशन में बहुत प्रसिद्ध थे। इस कारण उनकी बड़ी इज्ज़त थी। वह लोगों के आगे एक मिसाल बन गए थे।
हाईकोर्ट में वकालत के दिनों में ही उनका सम्पर्क मदन मोहन मालवीय और बालकृष्ण भट्ट से हो गया। वह वकालत का काम करते हुए भी हिन्दी प्रचार के कामों में बराबर रुचि लेने लगे। टंडन जी का परिवार बड़ा था। उनके कन्धों पर सात बेटे और दो बेटियों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी थी। महामना मालवीय से उनकी आर्थिक स्थिति छिपी नहीं थी। उन्होंने टंडन जी का नाम नाथा रियासत के कानून मन्त्री के पद के लिए भिजवा दिया। 1914 में नाभा राज्य के क़ानून मन्त्री के रूप में टंडन जी नियुक्त हो गए। अपनी योग्यता के कारण उन्हें जल्दी ही विदेश मन्त्री बना दिया गया। जब तक वह नाभा में रहे, अपनी कार्य-कुशलता से सभी को प्रभावित करते रहे। सन् 1918 में कुछ ऐसी समस्या उत्पन्न हो गई कि उन्हें नाभा छोड़ इलाहाबाद वापस आना पड़ा। इलाहाबाद के निवासियों ने इस हस्ती को अपनी नगर परिषद का चेयरमैन बनाकर उनका सम्मान किया।
स्वतन्त्रता संग्राम में तो वह पहले की कूद चुके थे। इलाहाबाद आकर नियमित रूप से राजनीति में भाग लेने लगे। साथ ही हिन्दी के लिए भी निरन्तर सक्रियता बनाए रखी। 17 फ़रवरी, 1915 को मुज़फ्फर नगर में आयोजित ‘सहृदय संघ’ के सत्रहवें वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने कहा था, “लोग कहते हैं कि मैं साहित्य और राजनीति में समन्वित व्यक्तित्व रखता हूं, पर सच्ची बात यह है कि मैं पहले साहित्य में आया और प्रेम से आया। हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे उसी प्रेम ने उसके हितों की रक्षा और उसके विकास पक्ष को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।”
उन दिनों हिन्दी साहित्य और भारत की राजनीति दोनों में ही टंडन जी का समान रूप से सम्मान होता था। आज हिन्दी देश की राजभाषा के सिंहासन पर विराजमान है। इसका श्रेय राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को ही जाता है हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में मंगलाप्रसाद पारितोषिक की स्थापना टंडन जी ने ही की, जो प्रतिवर्ष किसी-न-किसी साहित्यकार को उसकी श्रेष्ठ रचना पर दिया जाता है।
सन् 1921 के सत्याग्रह के कारण उन्होंने पहली बार जेल-यात्रा की। साधु जैसा स्वभाव और सौम्य छवि, उस पर स्वाध्याय, परिश्रम, त्याग और निष्ठा के कारण टंडन जी जनता के प्रिय बन गए और ‘उत्तर-प्रदेश का गांधी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी अवधि में उन्होंने काशी विद्यापीठ की तरह प्रयाग विद्यापीठ की स्थापना की, जो वास्तव में एक महान कार्य था।
सन् 1923 में गोरखपुर की प्रान्तीय कांग्रेस के अठारहवें अधिवेशन में टंडन जी को अध्यक्ष बनाया गया। इसी वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने सम्मेलन की पहली नियमावली बनाई और हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन कराने के लिए गांधी जी, राजेन्द्र बाबू आदि के साथ तालमेल बैठाया।
राजनीतिक सक्रियता के कारण वह वकालत छोड़ चुके थे। इससे उन्हें आर्थिक कठिनाई होने लगी। कुछ मित्रों के कहने पर फिर से वकालत शुरू की। लाला लाजपतराय ने इस संकट को दूर करने के लिए उन्हें पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर पद पर लाहौर भिजवा दिया, परन्तु वहां टंडन जी केवल चार वर्ष रहकर इलाहाबाद वापस आ गए। लाला जी पुरुषोत्तमदास को बड़ा प्यार करते थे और उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे, परन्तु उनके कन्धों पर बड़े परिवार की ज़िम्मेदारी देखकर चुप रह जाते। लाला जी द्वारा स्थापित तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स में टंडन जी बहुत मन लगाकर काम करते थे।
यही स्कूल बाद में द पीपुल सोसाइटी (लोक सेवक मंडल) में बदल गया । लाला जी की मृत्यु के बाद गांधी जी के आदेश पर टंडन जी ने मंडल का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। लोक सेवक मंडल के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने लाला लाजपतराय स्मारक निधि के लिए पांच लाख रुपए इकट्ठा किए।
उन्होंने किसान आन्दोलन के अग्रदूत के रूप में भी बड़ा काम किया। यह आन्दोलन जौनपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली आदि ज़िलों में बड़ी तेज़ी से फैला, फिर एकता आन्दोलन के रूप में पूरे प्रान्त में फैल गया। गांव-गांव में किस सभाएं की गईं और उनमें नव-जागृति का शंख फूंका गया। सन् 1930-31 में महंगाई के कारण किसानों के सामने खड़ी समस्याओं का समाधान भी पूरा ज़ोर लगाकर किया और इसी प्रकार आन्दोलन की चिनगारी सारे देश में भड़क उठी।
नमक सत्याग्रह सारे देश में अद्भुत उत्साह लेकर आया। नमक बनाने के जुर्म में डांडी के समुद्र तट पर गांधी जी को गिरफ्तार किया गया। उन्हीं के साथ तैयब जी, सरोजिनी नायडू, गणेशशंकर विद्यार्थी की भी गिरफ्तारियां हुई। इसके बाद जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तमदास टंडन की बारी आई।
3 नवम्बर, 1939 को कांग्रेसी मन्त्रिमंडलों ने विश्वयुद्ध में भारत की भूमिका को लेकर त्याग-पत्र दे दिया। सारे भारत में नारा दिया गया ‘न एक आई, न एक पाई’। टंडन जी अब विधान सभा से निकलकर फिर से जनकार्यों में जुट गए। कानपुर, फ़ैज़ाबाद आदि नगरों में व्यायाम शालाओं, प्रौद-शिक्षा केन्द्रों की योजनाएं चलाई।
1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में वह पुनः जेल गए। 9 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन में टंडन जी ने बड़े उत्साह के साथ युवकों का नेतृत्व किया। इस कारण उन्हें पुनः जेल जाना पड़ा। यह उनकी सातवीं जेल-यात्रा थी। 1944 में वह जेल से छूटे।
अनेक वर्षों तक कांग्रेस के उच्च पदों पर रहते हुए भी वह हिन्दी के प्रश्न को भुला नहीं सके । उत्तर-प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने हिन्दी की विशेष सेवा की। जब वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तब भी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय में सभी काम हिन्दी में करने के आदेश जारी किए। स्वतन्त्रता के बाद जब विधान परिषद बनी, उसमें भारतीय संविधान में भाषा का प्रश्न उठा, तब भी उन्होंने हिन्दी की हिमायत की।
देश-विभाजन का विरोध टंडन जी ने बहुत किया। इस सिलसिले में वह महात्मा गांधी से मिले, किन्तु देश के टुकड़े हो ही गए। भीषण मारकाट और परेशानियों का माहौल बन गया, फिर 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र हो गया।
15 अप्रैल, 1948 को देवरहा बाबा द्वारा प्रयाग के एक बड़े जनसमूह के सामने टंडन जी को राजर्षि की उपाधि दी गई। टंडन जी ने अपना सारा जीवन एक ऋषि की तरह व्यतीत किया। उन्हें पद का बिल्कुल भी मोह नहीं था। एक बार विधान सभा के किसी सदस्य ने व्यंग्य में कह दिया कि मेरा स्पीकर में विश्वास नहीं है। टंडन जी फ़ौरन कुर्सी से उठ गए और बोले, “अगर पांच सदस्य सोच-समझकर कहें कि उनका स्पीकर में विश्वास नहीं है, तो में तुरन्त इस पद से इस्तीफा दे दूंगा।”
उनके इस कथन से चारों ओर चुप्पी छा गई। थोड़ी देर बाद सभासद संभले और सबने एक स्वर से स्पीकर के प्रति अपना विश्वास प्रकट किया, तब कहीं जाकर टंडन जी कुर्सी पर बैठे।
3 अक्टूबर, 1960 को प्रयाग में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने एक विशाल समारोह में उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया। उनकी सेवाओं को देखते हुए अभिनन्दन ग्रन्थ शायद पर्याप्त नहीं था। इसीलिए वर्ष 1961 में उन्हें भारतरत्न से अलंकृत करके उनकी देशसेवा का सही मूल्यांकन किया गया।
हिन्दी की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने उनके बारे में कहा था, “पुरुषोत्तमदास जी सत्य के ऐसे शिल्पी हैं, जिनके मूल्यांकन के लिए साधारण मापदंड से भिन्न मापदंड की आवश्यकता पड़ेगी। उनके शरीर और जीवन दोनों ने ही इतने परीक्षणों का भार झेला है कि वह सैद्धान्तिक सत्यों का खरापन सिद्ध करके भी जर्जर हो गए। स्वर्ण को खरा प्रमाणित करने के लिए अंगारे क्या भस्मावशेष नहीं हो जाते?” 1 जुलाई, 1962 को सुबह 10 बजकर 5 मिनट पर टंडन जी मृत्यु की गोद में सो गए।